मीडिया : शाहीन बाग-टू
‘शाहीन बाग’ फिर से चरचा में है। दिल्ली के बॉर्डरों पर पिछले दस दिन से चल रहे किसानों के धरने और प्रदर्शन में कई एंकर ‘शाहीन बाग टू’ खोजने लगे हैं।
मीडिया : शाहीन बाग-टू |
एक चैनल ने एक दिन शाहीन बाग वाली एक ‘शेरनी दादी’ को दिखाया। पूछने पर उन्होेंने बताया कि किसानों के समर्थन में आई हैं। उसके बाद किसी चैनल में ‘वे’ नहीं दिखीं। कुछ चैनलों ने जिनको दिखलाया, वे तिहत्तर बरस की मोहिंदर कौर थीं, जो शायद सिंघू बॉर्डर के धरने में आई हुई हैं। कंगना ने शायद उन्हीं को शाहीन बाग वाली बिलकीस बानो से कन्फ्यूज किया और उनका मजाक उड़ाया और जवाब में दिलजीत दोसांझ आदि से ‘ट्वीट-मार’ खाई। निरे मूर्खतापूर्ण कटाक्ष और पंगे का यह प्रसंग भी इसलिए चर्चित हुआ, क्योंकि इसमें भी ‘शाहीन बाग’ का संदर्भ रहा।
ऐसे में मीडिया के एक एंकर की उस टिप्पणी पर गौर किया जाना चाहिए, जो कहती है कि किसानों का धरना देर-सवेर ‘शाहीन बाग टू’ का रूप ले सकता है। किसानों के तेवरों को भी ध्यान से देखें, तो इस बात में दम लगता है। इसमें हम इतना और जोड़ सकते हैं कि इस बार ‘एक शाहीन बाग’ न बनकर पांच-पांच ‘शाहीन बाग’ बन सकते हैं। दिल्ली के पांचों बॉर्डरों का रास्ता जाम करके धरने पर बैठे दसियों हजार किसान अगर जमे रहे, तो कुछ दिन बाद हम पांच-पांच शाहीन बागों के बीच होंगे। शाहीन बाग ने तो सिर्फ एक ‘हाइवे’ बंद किया था, किसानों ने तो पांच-पांच हाईवे बंद कर रखे हैं।
सीएए के खिलाफ ‘शाहीन बाग’ का वह धरना करीब दो महीने चला, लेकिन मीडिया के चौबीस बाई सात के कवरेज ने उसे धरने से अधिक ‘धरने का सीरियल’ बना दिया और इस तरह उसे एक ‘सुपर प्रोटेस्ट शो’ में बदल दिया। उसकी अद्वितीयता उसके धरने वालों की ‘रणनीतिक मौलिकता’ में थी। पहली बार किसी राजनीतिक धरने में बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाएं अपने बाल-बच्चों के साथ शामिल दिखीं। यही इसकी ‘रणनीतिक मौलिकता’ थी। महिला और उनके छोटे-छोटे बच्चे मिलकर ऐसा करुण दृश्य बनाते थे कि प्रशासन हाथ डालने से डरता था। चैनलों की चौबीस बाई सात की कवरेज, प्रशासन और पुलिस को कोई भी हस्तक्षेप करने से रोकती थी, क्योंकि जरा भी कुछ ऐसा वैसा होता तो सरकार को बेहद ‘बुरा मीडिया’ मिलता।
धरना और प्रदर्शन जब आज के ‘अतिमीडिया’ और सोशल मीडिया’ में ‘चौबीस बाई सात’ के ‘सुपर सीरियल शो’ बन जाते हैं, तो उनमें एक ‘मिथकीय’ किस्म की ‘पवित्रता’ और ‘दिव्यता’ आ जाती है और प्रशासन और पुलिस को उन पर हाथ डालने से डर लगता है। शाहीन बाग के दृश्यों में बूढ़ी दादियां, नानियां, माताएं, बहनें, बच्चे आदि शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन करते हुए दिखते। एक पल को आप चाहते कि उनको हटा दिया जाए, दूसरे ही पल आप सहम जाते कि जो शांत भाव से बैठे हैं, उनको जबर्दस्ती कैसे हटाएं? धीरे-धीरे वह एक दुर्दमनीय दृश्य बन गया। एनजीओ आदि तो पहले से ही साथ थे। अब सरकार से अनबन रखने वाले भी धरने वालियों की हिम्मत की दाद देते। यह विवाद बाद का है कि उनके पीछे कौन था? पैसा कहां से आया? यहां यह हमारा विषय भी नहीं है। हम तो मिथक जैसे बन चुके ‘शाहीन बाग’ की एक विशिष्ट सरंचना का विखंडन’ कर रहे हैं कि किस तरह ऐसे धरने स्वत:स्फूर्त न होकर सुनियोजित होते हैं। शाहीन बाग के एक नेता शरजील इमाम ने भारत को जाम करने के लिए इसी तरह के ‘चार सौ हाइवे धरनों’ की ही बात तो कही थी!
शाहीन बाग मुस्लिम केंद्रित था, जबकि यह धरना का पंजाबी-हरियाणी-यूपी के किसानों का है। ये किसान अपने ट्रैक्टर-टालियों में छह महीने का राशन-पानी लेकर आए हैं यानी धरने की पूरी पक्की प्लानिंग भी की गई है, और शाहीन बाग वाली वही जिद भी है कि जब तक ‘तीनों कृषि सुधार कानून’ नहीं हटा लेते, तब तक नहीं हटने वाले। मीडिया और सोशल मीडिया में यह भी उसी तरह से विवादित है, जिस तरह से शाहीन बाग था। मीडिया इस धरने को उसी तरह एक ‘सुपर सीरियल शो’ में बदल रहा है, जिस तरह से ‘शाहीन बाग’ बदला था। सिर्फ एक फर्क है: शाहीन बाग औरतों और बच्चों का इमोशनल दृश्य था जबकि यह खेतों में काम करने वाले रफ-टफ किसानों का ‘सीन’ है। यहां औरतें और बच्चे न के बराबर हैं। इसीलिए जिस तरह का ‘इमोशनल सीन’ शाहीन बाग बनाता था, ये किसान नहीं बनाते और आज बिना इमोशनल राजनीति के दूसरी कोई राजनीतिक कार्रवाई हमदर्दी नहीं पैदा कर पाती।
यह दौर ‘सांस्कृतिक राजनीति’ का दौर है। आज की राजनीति का मुहावरा ‘इमोशनल’ है, जो शो ‘इमोशनल’ नहीं होता वह प्रभावशाली नहीं हो पाता। किसानों के इस ‘शाहीन बाग-टू’ की यही सीमा है!
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