अर्थव्यवस्था : खेती ने जगाई उम्मीद

Last Updated 08 Sep 2020 12:33:33 AM IST

वर्तमान कोरोना संकटकाल में अर्थव्यवस्था में भारी गिरावट दर्ज की गई है। पिछले वर्ष की अपेक्षा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 23.9 फीसद घटा है।


अर्थव्यवस्था : खेती ने जगाई उम्मीद

इसी प्रकार रोजगार में भी भारी कमी आई है। एक अनुमान के अनुसार तो लगभग नौ करोड़ लोग बेरजोगार हुए हैं। कोरोना का सबसे ज्यादा असर प्रवासी श्रमिकों पर पड़ा है। इस दरम्यान एकमात्र सुखद समाचार कृषि क्षेत्र से आया है। सरकार के ताजा आंकड़ों के अनुसार कृषि क्षेत्र की बुवाई का रकबा 10 फीसद बढ़ा है। चालू खरीफ फसल की बुवाई ऐतिहासिक रिकार्ड 1082.22 लाख हेक्टेयर पर पहुंची है। इससे पहले का रिकार्ड वर्ष 2016 का 1075.71 लाख हेक्टेयर था। पिछले साल के मुकाबले धान की रोपाई में 10 फीसद, दलहन में पांच फीसद, तिलहन 13 फीसद और कपास तीन फीसद अधिक क्षेत्र में बोई गई है। साथ ही उर्वरकों और ट्रैक्टर सहित तमाम कृषि यंत्रों की मांग में भी बढ़ोतरी देखने को मिली है।
ध्यान देने योग्य बात है कि लॉकडाउन के समय किसानों को अपनी फसल काटने और फल, सब्जी, दूध, अंडा, मछली, मुर्गी आदि जैसे जल्द खराब होने वाले कृषि उत्पादों को मंडियों तक ले जाने में भी सरकार ने पुलिस बल से रोकने की कोशिश की। आश्चर्य की बात है कि इसके बावजूद किसान ने अपना हौसला, उत्साह और कर्मशीलता नहीं छोड़ी। निष्कर्ष यह है कि जब हमारी अर्थव्यवस्था के लगभग सभी मुख्य घटक अस्त-व्यस्त हो गए, कृषि क्षेत्र से ही एकमात्र उम्मीद की किरण दिखाई दी है। इस वर्ष लॉकडाउन की कठिन परिस्थिति में भी मार्च-जून 2020 की अवधि में 25,552.70 करोड़ रुपए के कृषि उत्पादों का निर्यात हुआ, जो पिछले साल यानी 2019 की इसी अवधि में 20734.80 करोड़ रुपये था अर्थात इसमें 23.24 फीसद की वृद्धि हुई है।

यद्यपि भारत की गणना अब विश्व के मुख्य कृषि उत्पादक देशों में होती है। हमारे पास पूरे विश्व के भौगोलिक क्षेत्र का केवल 2.4 फीसद हिस्सा है परंतु कृषि योग्य भूमि में हमारे पास विश्व का 12 फीसद भाग है। लगभग इतना ही भाग अमेरिका पास है और चीन जिसकी जनसंख्या हमसे लगभग 10 करोड़ ज्यादा है; उसके पास विश्व की केवल नौ फीसद कृषि योग्य भूमि है। भारत में सिंचित कृषि का क्षेत्र लगभग 45 फीसद है। शेष 55 फीसद कृषि भूमि को सिंचाई की सुनिश्चित व्यवस्था उपलब्ध करा दी जाए, जो कि संभव है तो इन क्षेत्रों कृषि उत्पादन ढाई गुना बढ़ाया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि ग्रामीण गरीबों की अधिसंख्या (82 फीसद) इन्हीं असिंचित क्षेत्रों में रहती है। हालांकि हम गेहूं के उत्पादन में विश्व में दूसरे स्थान पर हैं परंतु निर्यात में 34वें स्थान पर हैं। सब्जी उत्पादन में हमारा स्थान तीसरा है परंतु निर्यात में 14वां है। फल उत्पादन में हम दूसरे सबसे बड़े उत्पादक हैं परंतु निर्यात में 23वें स्थान पर हैं।
हमारे पश्चिम में स्थित खाड़ी देशों में कृषि उत्पादों का भारी आयात होता है परंतु उसमें भारत का हिस्सा मात्र 10-12 फीसद रहता है। यदि कृषि की उन्नति के लिए एक समग्र समेकित दीर्घकालीन नीति बनाकर कुछ उपयुक्त वित्तीय, ढांचागत और तकनीकी उपाय कर लिए जाएं तो न केवल गरीबी और कुपोषण की समस्या का शीघ्रतम और प्रभावी निदान हो सकता है  बल्कि निर्यात के क्षेत्र में भारत अग्रणी आर्थिक शक्ति बन सकता है। आर्थिक मंदी के इस दौर में यह बात भी खुलकर सामने आई है कि औद्योगिक और सेवा क्षेत्रों के उत्पादों की मांग में बराबर कमी रही है। उल्लेखनीय है कि उद्योग और सेवा के उत्पादों की लगभग 45 फीसद मांग ग्रामीण क्षेत्रों से आती है और ग्रामीणों द्वारा की गई बचत जो बैंकों में जमा होती है उसका केवल 30 फीसद भाग ग्रामीणों को ऋण के रूप में दिया जाता है बाकी 70 फीसद अर्थव्यवस्था के अन्य घटकों के वित्त पोषण के लिए काम आता है। ये दोनों आंकड़े इस बात को भी सिद्ध करते हैं कि यदि कृषि क्षेत्र में सिंचाई की व्यवस्था हो और कृषि उत्पादों को लाभकर मूल्य मिलते रहें तो ग्रामीण क्षेत्रों की आय यानी क्रय शक्ति उचित स्तर पर बनी रह सकती है और राष्ट्र के विकास के लिए अपेक्षित मांग और वित्तीय संसाधन जुटाने में महत्त्वपूर्ण योगदान हो सकता है। कोरोना संकट में यह बात भी अच्छी तरह से समझ में आ गई है कि अन्य वस्तुओं के बिना तो जीवन संभव है परंतु कृषि के बिना कदापि नहीं।
सर्वाधिक निराशा की बात यह है कि स्वतंत्रता के पूर्व भी और पश्चात भी कृषि जिंसों के भाव दूसरी वस्तुओं के मूल्यों के मुकाबले लगातार कम रहे हैं। यह एक विस्तृत अध्ययन का विषय है। संक्षेप में इसको एक उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है। वर्ष 1967 में गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पहली बार तय किया गया था। वह 75 रुपये प्रति क्विंटल था। तब से लेकर अब तक अगर सामान्य मुद्रास्फीति यानी सभी वस्तुओं के मूल्यों की औसत वृद्धि दर देखी जाए तो गेहूं का भाव आज की तारीख में 7,000 रुपये प्रति क्विंटल से ऊपर होना चाहिए।
यही स्थिति कमोबेश अन्य कृषि उत्पादों की भी रही है। उपज का मूल्यांकन लगातार कम होने के कारण ही राष्ट्र की आय में खेती का योगदान 15-16 फीसद आ गया है। यदि सापेक्ष मूल्यों में अपेक्षित सुधार किया जाए तो आज भी खेती का योगदान किसी भी दशा में 40 फीसद से कम नहीं रहेगा। यह भी ध्यान देने योग्य है कि देश की 60 फीसद से अधिक जनसंख्या और 45 फीसद रोगजार आज भी कृषि पर आधारित हैं।  देश के निर्यात में भी खेती का योगदान 14 फीसद है।
राष्ट्र के सैनिक, अर्धसैनिक बलों और शारीरिक श्रम करने वाले मजदूर लगभग 90 फीसद ग्रामीण क्षेत्र से आते हैं। यदि खेती की दशा बिगड़ती है तो राष्ट्र के इस आधार स्तंभ वर्ग का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रह सकता। और अंत में खाद्य पदाथरे का अभाव राष्ट्र को ऐसी स्थिति में ला देता है, जिसमें युद्ध आदि संघर्ष के दौरान दुश्मन को हथियार उठाने की जरूरत नहीं रहती। इस प्रकार का दुखद अनुभव द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान और भारत को हो चुका है। इसीलिए कृषि की प्राथमिकता न केवल गरीबी व कुपोषण समाप्त करने के लिए बल्कि राष्ट्र की सुरक्षा और अर्थव्यवस्था को विश्व की अग्रणी शक्ति बनाने में महती भूमिका अदा कर सकती है।
(लेखक केंद्रीय कृषि मंत्री रहे हैं)

सोमपाल शास्त्री


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