रेलवे : निजी निवेश से बदलाव का सपना

Last Updated 25 Mar 2020 01:25:55 AM IST

बजट सत्र के दूसरे चरण में संसद के दोनों सदनों में रेलवे पर हुई चर्चा के दौरान तमाम सांसदों ने जहां रेलवे के निजीकरण पर सवाल खड़ा किया वहीं उसकी डगमगाती वित्तीय स्थिति पर भी चिंता जताई।


रेलवे : निजी निवेश से बदलाव का सपना

इन मसलों पर दोनों सदनों में सांसदों ने कई सवाल भी पूछे। रेल मंत्रालय के कामकाज पर दोनों सदनों में रेल मंत्री ने व्यापक चर्चा की, आलोचनाओं का जवाब दिया और यह भी साफ किया कि रेलवे में निजी निवेश नहीं हुआ तो किराया भाड़ा बढ़ाना पड़ेगा, लेकिन उच्च सदन में रेल मंत्री ने यह कहा कि रेलवे का निजीकरण नहीं होगा। मगर भारी निवेश के लिए निजी क्षेत्र का सहयोग लिया जाएगा।
बीते कुछ सालों से कई तरह की गंभीर चुनौतियों से जूझ रही भारतीय रेल कई क्षेत्रों में पीपीपी से राह तलाश रही है। 2030 तक रेलवे इंफ्रास्ट्रक्चर पर 50 लाख करोड़ रु पये निवेश की परिकल्पना भारतीय रेल ने की है। लेकिन इसके लिए धन जुटाना सहज नहीं है। सालाना डेढ़ लाख या 1.60 लाख करोड़ रु पये तक पूंजी व्यय के मौजूदा क्रम के हिसाब से तमाम परियोजनाओं को पूरा करने में दशकों लग जाएंगे। भारतीय रेल को चालू परियोजनाओं के लिए 7.75 लाख करोड़ रु पये की दरकार है। उदारीकरण के बाद कई क्षेत्रों में निजी क्षेत्र ने पांव पसारा और अच्छा प्रदर्शन किया। टेलीकाम सेक्टर इसमें सबसे अग्रणी रहा। लेकिन भारतीय रेल और डाक क्षेत्र में सरकारी एकाधिकार बना रहा। रेलवे में निजी निवेश या पीपीपी की दिशा में जो प्रयास हुए वे खानपान सेवाओं में ही सफल रहे, जहां से रेलवे को सबसे अधिक शिकायतें मिल रही हैं। निजी क्षेत्र लंबी अवधि के बड़े निवेशों से कतराता रहा।

11वीं योजना में रेलवे ने एक लाख करोड़ रु पये अतिरिक्त बजटीय संसाधनों से एकत्र करने की ठानी, जिसका बड़ा हिस्सा पीपीपी से पूरा होना था लेकिन नतीजे हताश करने वाले रहे। अलबत्ता बंदरगाहों, दूरसंचार, विद्युत और हवाई अड्डों के मामलों में पीपीपी सफल रहा। फिर भी समय-समय पर सरकार इस बात के लिए दबाव बनाती रही वह पीपीपी से निवेश बढ़ाए। इसके लिए कई रास्तों की तलाश हुई किंतु सफलता हाथ नहीं लगी। भारतीय रेल ने चर्चगेट-विरार-मुंबई उपनगरीय रेल कॉरिडोर, मुंबई अहमदाबाद हाई स्पीड कॉरिडोर, स्टेशनों का पुनर्विकास, लॉजिस्टिक पार्क और निजी माल टर्मिंनल, बंदरगाह कनेक्टिविटी और कैप्टिव बिजलीघर, डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर का सोननगर-दानकुमी खंड के साथ इंजन और रेल कोच कारखानों को पीपीपी के लिए आगे किया परंतु इसकी जमीनी हकीकत सबको पता है। उदारीकरण के बाद कई तरह के प्रयास और प्रयोग हुए और उदार नीतियां बनीं। कुछ नये मॉडल भी बने जैसे संयुक्त उद्यम मॉडल, निर्माण परिचालन और हस्तांतरण, ग्राहकों द्वारा निधि मुहैया कराना और राज्य सरकारों की अधिक भागीदारी। इनमें राज्य सरकारों की पहल का कुछ खास असर दिख रहा है। भारत की जीवन रेखा कही जाने वाली भारतीय रेल मोदी सरकार की प्राथमिकताओं में है। आम बजट 2020-21 में परिवहन अवसंरचना के लिए सरकार ने 1.70 लाख करोड़ रु पये आवंटित किए हैं, जिसमें से रेलवे के हिस्से में 72,216 करोड़ रुपये दिए गए हैं। लेकिन भारतीय रेल का परिचालन अनुपात 2020-21 के दौरान 96.2 फीसद के करीब रहेगा जो 2019-20 में 97.4 फीसद तक पहुंच गया था। जाहिर है आंतरिक संसाधनों से विकास की कोई खास गुंजाइश रेलवे के पास नहीं है।
रेलवे विकास परियोजनाओं के लिए पिछले साल सरकार ने 65,873 करोड़ रुपये की बजटीय सहायता दी गई थी, जिसे बढ़ा कर वित्त मंत्रालय ने 72,216 करोड़ रु पये किया है। बीते तीन सालों का औसत परिचालन अनुपात 97.4 फीसद रहा। वहीं सामाजिक सेवा दायित्व और लागत बढ़ते रहना भी चिंताजनक बना हुआ है जो अब 55 हजार करोड़ रुपये पार कर गया है। अगर बीते तीन सालों का आंकड़ा देखें तो साफ होता है कि भारतीय रेल अपने लक्ष्यों पर खरा नहीं उतरा है। हालांकि यात्री और माल यातायात आमदनी बढ़ी लेकिन वे लक्ष्य तक नहीं रहीं। 2016-17 में यात्री आमदनी 48 हजार करोड़ रुपये थी जो 2018-19 में 51,066 हजार करोड़ हो गई। इस दौरान माल भाड़ा 1,08,900 करोड़ से बढ़ कर 1,27,433 करोड़ हो गया। 2020-21 में  यह 1.47 लाख करोड़ और 61 हजार करोड़ रु पये परिकल्पित है। इस हालात के बीच भारतीय रेल 150 ट्रेनों के संचालन और 50 स्टेशनों के विकास का जिम्मा प्राइवेट कंपनियों के हवाले करना चाहती है। इसकी शर्त तय करने के लिए सरकार ने ग्रुप आफ सेकेट्रीज का गठन भी किया है, जिसके अध्यक्ष सीईओ नीति आयोग हैं। रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष और वित्त आयुक्त भी इसमें शामिल हैं।
इसमें रेलवे भूमि और नभ क्षेत्र पर स्वामित्व रेलवे का ही रहेगा। इस समूह की सात बैठकों में भी परिचालन मागरे और मुख्य कामकाज को अंतिम रूप नहीं दिया जा सका है। फिर भी यह सफाई दी जा रही है कि इससे नियमित गाड़ियों का परिचालन प्रभावित नहीं होगा और वे संबंधित चार्टेड मागरे पर चलाई जाएगी। रेलवे स्टेशनों के विकास योजनाओं में जरूर कई निजी विकासकर्ताओं ने रु चि दिखाई है। भारतीय रेल पर वैसे तो एक दशक से पहले ही लाइसेंसी निजी कंटेनर आपरेटर कंटेनर गाड़ियां चल रही हैं। 2012 में बनी सहभागिता नीति के तहत निजी भागीदारी से 13 परियोजनाएं पूरी हुई, जिन पर 6,176 करोड़ रुपये की लागत आई। कोयला कनेक्टिविटी और बंदरगाह कनेक्टिविटी की 11 परियोजनाएं जिन पर 22,098 करोड़ की लागत आ रही है वे क्रियान्वयन के चरणों में हैं। वहीं सात अन्य परियोजाओं को सिद्धांत: मंजूरी दी गई है, जिनकी लागत 13,421 करोड़ है। सरकार अब पीपीपी की मदद से रेलवे दूध, मांस, मछली और जल्दी खराब होने वाली वस्तुओं के लिए एक अबाधित राष्ट्रीय कोल्ड चेन श्रृंखला बनाने हुए ‘किसान रेल’ चलाने की रणनीति भी बना रही है।
भारतीय रेल के कुल पूंजीगत परिव्यय में 2016-17 में आंतरिक संसाधनों की जो हिस्सेदारी 12,125 करोड़ रु पये थी; वह घट कर पांच हजार करोड़ पर आ गई है। 2020-21 का आंकड़ा देखें तो वार्षिक योजना में बजटीय सहायता 55,250 करोड़ है, वहीं आंतरिक संसाधन की हिस्सेदारी महज 2500 करोड़ है। पीपीपी के माध्यम से वित्त पोषण 25,292 करोड़ रुपये परिकल्पित है। 2019-20 में पीपीपी से 17,776 करोड़ रुपये का अनुमान था लेकिन जनवरी, 2020 तक वास्तविक उपलब्धि 8805 करोड़ रुपये रही। इन सारे तथ्यों के आलोक में भारतीय रेल राष्ट्रीय रेल योजना बनाने पर भी काम कर रही है। विद्युतीकरण से लेकर क्षमता विस्तार के तमाम काम हो रहे हैं, लेकिन संसाधनों की मौजूदा स्थिति बताती है कि गंभीर मोड़ पर खड़ी है।

अरविंद कु. सिंह


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