भूख से मौत : इस रात की सुबह कब?
21 वीं सदी की तीसरी दहाई की दहलीज पर भारत दुनिया के सामने एक बेहद विरोधाभासी तस्वीर पेश करता है।
भूख से मौत : इस रात की सुबह कब? |
एक तरफ है 21वीं सदी में विशक्ति बनने के उसके दावे, अपने आप को विगुरु मानने की उसकी सनक भरी जिद और दूसरी तरफ दिखती है भूख जैसी बुनियादी समस्या को सुलझा पाने में उसकी प्रचंड नाकामयाबी। बोकारो के पास स्थित ग्राम करमा/शंकरडीह/जो कसमार प्रखंड में पड़ता है -में होली के दिन जब शेष भारत जश्न में डूबा था, हुई भूखल घासी की मौत (42) दरअसल इसी बात की ताइद करती है।
अब जैसा कि आम तौर पर ऐसी तमाम मौतों के बाद होता है कि सरकारी अमला पहुंच जाता है, छोटे ओहदे के अधिकारी पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाती है, परिवार को फौरी राहत दी जाती है और फिर सुर्खियों से मामला हट जाता है। एक अंग्रेजी अखबार की खबर बताती है कि अब उसके परिवार का राशनकार्ड बन गया है, जिसमें मरणोपरान्त लम्बे समय से बेरोजगार चल रहे भूखल घासी का नाम भी शामिल है, जिसके न बनने से सस्ते दर पर उसके परिवार को अनाज नहीं मिल रहा था और चार दिन से उसके घर में खाना नहीं बना था। विडम्बना ही है कि सूबे में इन दिनों सत्तासीन झारखंड मुक्ति मोर्चा-कांग्रेस-राजद जैसी पार्टयिां जिन दिनों विपक्ष में थी, तब उन्होंने रघुवर दास शासन में हो रही ऐसी मौतों पर सरकार को बाकायदा घेरा था, भूख से होने वाली मौतें चुनावी मुद्दा बनी थी और ऐसा लग रहा था कि कम-से-कम इस मामले में सरकारी महकमे में बदलाव दिखाई देगा। लेकिन देखने में यही आ रहा है कि उसके सुर भी बदल गए हैं। विधानसभा के बजट सत्र के दौरान कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के विधायक विनोद सिंह ने जब इस मसले पर सवाल रखा कि क्या यह बात सही है कि विगत पांच साल में राज्य में भूख और कुपोषण से एक दर्जन से अधिक मौतें हुई हैं तो खाद्य आपूर्ति विभाग का जवाब चौंकानेवाला था। विभाग ने विधायक के इस सवाल को ही ‘अस्वीकारात्मक’ बताया और सदन को सूचित किया गया कि वर्ष 2015 से सूबे में खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू है और ‘राज्य के 99.60 फीसद लोगों को इस अधिनियम का लाभ मिल रहा है।’ विधायक ने यह भी बताया कि इन्हीं दिनों बोकारो के गोमिया में भी एक व्यक्ति की मौत भूख से हुई है। भूख से मौत के गहरे संरचनात्मक कारण हैं, जिसे सम्बोधित किए जाने की जरूरत है।
मिसाल के तौर पर अगर हम हर साल जारी वैश्विक भूख सूचकांक को देखें तो 2014 की रिपोर्ट में भारत 76 मुल्कों की फेहरिस्त में 55 वे नम्बर पर था तो 2017 में 119 देशों की सूची में 100वें नंबर पर रहा था, वहीं 2019 के वैश्विक भूख सूचकांक में 117 देशों की सूची में 102वें नंबर पर आ गया था। भारत की बद से बदतर होती स्थिति का आकलन इस बात से भी किया जा सकता है कि पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान 94 वें, बांग्लादेश 88 वें, नेपाल 73वें और श्रीलंका 66 वें स्थान पर रहकर भारत से आगे चल रहे थे। ‘आखिर अधिक अनाज पैदा करने के बावजूद हम भूख की समस्या को मिटा क्यों नहीं पा रहे हैं।’ भूख की विकराल होती समस्या को एक अलग कोण से सम्बोधित करने की कोशिश अग्रणी पत्रिका ‘इकोनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली’ में की गई थी। लेख में बताया गया था कि अगर नीतिगत स्तर पर देखें तो ‘भूख के मुद्दे से सीधे नहीं सम्बोधित किया जाता बल्कि उसे आर्थिक विकास के बड़े परिप्रेक्ष्य में रखा जाता है और यह उम्मीद की जाती है कि समाज की सम्पदा छन-छन कर नीचे आएगी और भूख की समस्या का समाधान करेगी।’
यह समझ कई ‘गलत अवधारणाओं पर टिकी होती है, जिसका ताल्लुक भूख और अन्य सामाजिक संरचनाओं के अंतर्सम्बन्ध पर टिका होता है। अधिक-से-अधिक कह सकते हैं कि यह वह एक अप्रत्यक्ष तरीका है जो भारत के सामने खड़ी भूख की विकराल समस्या को तुरंत सम्बोधित नहीं करता।’ इसी आलेख में इस प्रश्न पर भी विचार किया गया कि भूख की समस्या से निपटना हो तो ‘आय वितरण की नीतियों को अमल में लाना होगा, जो सामाजिक न्याय के उद्देश्यों को मजबूत करती हों न कि नवउदारवाद के तहत आर्थिक कार्यक्षमता के तकरे को पुष्ट करती हों।’ निश्चित ही घासी की मौत ऐसी मौतों में आखरी घटना नहीं है। प्रश्न उठता है कि इस सिलसिले को रोकने के लिए हम क्या वाकई गंभीर हैं या हम सभी सरकार के उसी तर्क की जुगाली करते रहेंगे, जिसमें उसका कहना होता है कि जब बड़े-बड़े सम्पन्न मुल्क इस समस्या से निजात नहीं पा सके हैं तो फिर भारत जैसे देश की क्या बिसात?
| Tweet |