कार्बन न्यूट्रीलिटी : ’भीष्म प्रतिज्ञा‘ की जरूरत

Last Updated 28 Nov 2024 01:33:35 PM IST

कॉप -29 पिछले दिनों समाप्त हो गया जिसकी आर्थिकी बहुत कुछ पेट्रोल के उत्पादन पर निर्भर है। इसने कॉप-29 में सारी आलोचनाओं के बीच भी तेल-गैस क्षेत्र का बचाव जारी रखा हुआ है। कॉप-28 भी ऐसे देश में ही हुआ था।


कार्बन न्यूट्रीलिटी : ’भीष्म प्रतिज्ञा‘ की जरूरत

 दूसरी तरफ, भारत और चीन तथा अमेरिका कोयले को अपने आर्थिक विकास का इंजन बनाए हुए हैं। इसको वो निकट भविष्य में छोड़ने वाले भी नहीं हैं किंतु जलवायु संकट के बीच अधिकांश देशों की ही तरह यह यथार्थ उन्हें स्वीकारना होगा कि भविष्य में अंतरराष्ट्रीय कारोबारी बिरादरी से अलग-थलग होने से बचने के लिए देर-सबेर उन्हें कार्बन न्यूट्रल होना ही पड़ेगा।
यूरोपियन संघ, जापान, कोरिया गणतंत्र सहित 110 से ज्यादा देशों ने 2050 तक कार्बन न्यूट्रीलिटी पाने की वचनबद्धता व्यक्त की हुई है। चीन 2060 तक ऐसा कर लेगा। भारत 2070 तक ही ऐसा कर पाएगा। यूरोपियन यूनियन तो उन आयातों पर भी कार्बन टैक्स लगाने का सोच रहा है, जिनके निर्माण में थ्रेशहोल्ड  वैल्यू से ज्यादा उत्सर्जन होता है। ऐसे में मजबूरन ही सही विभिन्न देश अपने-अपने यहां जीवाश्म ईधन के उपभोग, उपयोग, उत्पादन पर कड़े से कड़े नियम लागू कर रहे हैं।  
डिकाबरेनाइजेशन या कार्बनरहित होना इसलिए भी आवश्यक है कि वैिक तापक्रम बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री सेलसियस पर ही बांधने की महती जरूरत के बाद भी कोयला समेत  फोसिल ईधनों के लगभग निर्बाध उपयोग की छूट सभी चाहते हैं। हालांकि आईपीसीसी का मानना है कि पृथ्वी का गरम होना कुल कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के आनुपातिक होता है। वर्तमान में वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की सघनता बढ़ती जा रही है। अमेरिका की संस्था एनओएए के अनुसार मई, 2023 में वायुमंडल में मासिक कार्बन डाइऑक्साइड की सघनता रिकार्ड ऊंचाई पर पूर्व औद्योगिककाल की सघनता से पचास प्रतिशत ज्यादा थी। विश्व में 85 प्रतिशत ऊर्जा जीवाश्म ईधनों कोयला, पेट्रोलियम और गैस से प्राप्त की जाती है। पेट्रोलियम और गैस से जुड़े उद्योग तो हैं किंतु लोहा, इस्पात, एल्युमिनियम, सीमेंट, बिजली, हाइड्रोजन, उर्वरक, रसायन के उद्योग भी कार्बन इंटेंसिव हैं। स्टील, सीमेंट, रसायन क्षेत्र के उद्योगों से वायुमंडल में करीब बीस प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड पहुंचता है। बड़ी-बड़ी उत्सर्जन कटौतियों की हर क्षेत्र में आवश्यकता है। कार्बन डाइऑक्साइड को तो वायुमंडल से हटाना ही पड़ेगा परंतु पेड़ों के जिम्मे ही कार्बन डाइऑक्साइड को सोखने का काम सौंप कर हम जलवायु संकट की व्यापकता और गहनता का सामना नहीं कर सकते। वृक्ष चूंकि कार्बन डाइऑक्साइड का उपयोग फोटोसिंथेसिस और बायोमास बढ़ाने में करते हैं, इसलिए वे वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड हटाने में प्रभावी रहते हैं। इनसे जमीन के भीतर कार्बन भंडारण भी होता है। बहुत ज्यादा बायोमास बढ़ाना पड़ेगा। जंगलों में आग लगने जैसी घटनाएं भी होती हैं। हालांकि बड़ी-बड़ी कंपनियां, एयरलाइंस आदि भी जंगलों से कार्बन कैप्चर का ही सहारा ले रही हैं। अपनी ग्रीनहाउस गैसों के एमिशन को न्यूट्रलाइज करने यानी नेट जीरो उत्सर्जन लक्ष्य पाने के लिए इसी का सहारा ले रही हैं।
2023 में संयुक्त राष्ट्र की जलवायु वार्ताओं का नेतृत्व  करने के लिए घोषित कॉप-28 के मनोनीत अध्यक्ष यूएई के उद्योग एवं एडवांस टैक्नोल्ॉजी मंत्री डॉ. सुल्तान-अल-जबेर का बिना लाग लपेट यह कहना रहा कि जलवायु गणित जोड़जाड़ से कुछ खास नहीं होता, यदि उसमें कार्बन कैप्चर की प्रक्रियाएं शामिल नहीं हैं। वैकल्पिक ऊर्जा के सौर या पवन ऊर्जा के उपयोग भी गर्मी कम करने में कारगर नहीं हो सकते। 11 मई,  2023 को 1500 से ज्यादा वैिक पॉलिसी निर्माताओं, इंडस्ट्रियल लीडर्स, इनोवेटर्स को यूएई क्लाइमेट टेक कॉन्फ्रेंस में संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था : हमें तेजी से उन तकनीकी समाधानों को ढूंढना होगा जो आर्थिकी को डिकाबरेनाइज करें। उत्सर्जनों को आईपीसीसी रिपोर्ट के अनुसार 2030 तक कम से कम 43 प्रतिशत कम करें।’                                                                                                                                                                                                                                                                              
बाइडेन प्रशासन ने भी अमेरिका के पावर प्लांटों के ऑपरेटर्स को साफ निर्देश दिया है कि उन्हें उत्सर्जन रोकने के उपाय करने ही होंगे। अमेरिका के जलवायु राजदूत केरी भी चेतावनी भरे लहजे में कह चुके हैं कि समय आ  गया है कि ऐसे तेल व गैस उत्पादनकर्ता, जो कहते हैं कि उन्होंने वो तकनीकी महारथ हासिल कर ली है जिससे उनके जीवाम ईंधन निकालने व उसका उपभेग करने में दुनिया की गरम होने की स्थितियां और नहीं बिगड़ेंगी, सिद्ध करें कि ऐसी तकनीकें किफायती दर पर व्यापक स्तर पर उपयोग में लाई जा सकती हैं व तेजी से जलवायु आपदा को टाल भी सकती हैं। वहां लिक्विड नेचुरल गैस के उत्पादक  भी दावा कर रहे हैं कि डिकाबरेनाईजेशन तकनीकों में भारी निवेश कर नेचुरल गैस का ज्यादा से ज्यादा उत्पादन करते हुए जीरो ग्रीन हाउस इमिशन तक पहुंचेंगे। अमेरिका में कुल कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में पावर प्लांटों से 31 प्रतिशत का उत्सर्जन होता है।
कार्बन कैप्चर टैक्नोल्ॉजी के आलोचक मानते हैं कि इसे जलवायु संकट को कम करने के विस्त औजार के रूप में नहीं उपयोग किया जा सकता। यह कार्बन फेजआउट का विकल्प नहीं हो सकती। जीवाश्म ईधनों का उपयोग तो रुकना ही चाहिए। दुनिया को 2050 तक कार्बन न्यूट्रल बनाने की अपरिहार्यता को वक्त-वक्त पर संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव गुटरेस ने दोहाराते हुए कहा है कि हर देश, शहर,वित्तीय संस्थान-कंपनी को 2050 तक कार्बन न्यूट्रीलिटी पाने की जरूरत है। नवम्बर, 2020 में उन्होंने सचेत किया था कि गरम होती गैसों का उत्सर्जन कम करने की दौड़ में हम फिनिशिंग लाइन के कहीं भी नजदीक नहीं हैं। हालांकि वे आशावान भी थे कि जो देश वैिक 65 प्रतिशत से ज्यादा कार्बन उत्सर्जन व प्रतिशत आर्थिकी के लिए जिम्मेदार हैं वे कार्बन न्यूट्रीलिटी के पक्ष में महत्त्वपूर्ण आकांक्षी कमीटमेंट कर लेंगे किंतु जी20 के देशों, जो 80 प्रतिशत से ज्यादा प्रदूषण के जिम्मेदार हैं, को राह दिखानी चाहिए। एक डर तो यही है कि विकसित देशों ने ऐसी तकनीक देने में आनाकानी की तो गरीब और अमीर देशों में जलवायु बदलाव का दंश झेलने की क्षमताओं की खाई और ज्यादा हो जाएगी।   (लेख में विचार निजी हैं)

वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली


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