कोरोना से बचाव : उपाय वैदिक जीवन पद्धति

Last Updated 23 Mar 2020 01:26:03 AM IST

जब प्रधानमंत्री ने 22 मार्च को थाली या ताली बजाने का आह्वान किया तो मैंने सोशल मीडिया पर अपील जारी की थी कि ‘जिन घरों, मंदिरों, आश्रमों और संस्थाओं के पास शंख है, वे 22 मार्च की शाम 5 बजे से, 5 मिनट तक, घर के बाहर आकर लगातार जोर से शंख ध्वनि करें।


कोरोना से बचाव

ऐसा वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध हो चुका है कि शंख ध्वनि करने से वातावरण में उपस्थित नकरात्मक ऊर्जा और बैक्टीरिया का नाश होता है। इसीलिए वैदिक संस्कृति में हर घर में सुबह और शाम, पवित्रता के साथ, शंख ध्वनि करने की व्यवस्था हजारों वर्षो से चली आ रही है, जिसका हम, अपने घर में, आज भी पालन करते हैं। अगर देश की कुछ मेडिकल रीसर्च यूनिट्स चाहें तो तैयारी कर लें’।
इस प्रस्तावित शंख ध्वनि के पहले और बाद में ये संस्थान अपने क्षेत्र में ‘कोरोना’ वायरस पर इस ध्वनि के प्रभाव का अध्ययन भी कर सकते हैं। ‘जिस तरह विश्व समुदाय ने प्रधानमंत्री मोदी की अपील पर योग दिवस और नमस्ते को अपनाया है, वैसे ही इस प्रयोग के सफल होने पर शायद विश्व समुदाय सनातन धर्म की इस दिव्य प्रथा को भी अपना ले। तब हर घर से हर दिन सुबह और शाम शंख ध्वनि सुनाई देने लगेगी’। आज पूरी दुनिया में हर वक्त हाथ धोने पर जोर दिया जा रहा है जबकि वैदिक संस्कृति में यह नियम पहले से है कि जब कभी बाहर से घर पर आएं तो हाथ, मुंह और पैर अच्छी तरह धोएं और अपने कपड़े धुलने डाल दें और घर के दूसरे वस्त्र पहनें। इसी तरह जन्म और मृत्यु के समय सूतक लगने की परंपरा है। जिस परिवार में ऐसा होता है, उसे अपवित्र माना जाता है और अगर बधाई देने या संवेदना प्रकट करने ऐसे घर जाते हैं, तो उनके घर का पानी तक नहीं पीते और अपने घर आकर स्नान करके कपड़े धुलने डाल देते हैं। ऐसा इसीलिए किया जाता है कि बाहर के वातावरण और ऐसे घरों में बीमारी के कीटाणुओं की बहुतायत रहती है, जिनसे अपने बचाव के लिए यह व्यवस्था बनाई गई।

पश्चिमी देशों में हाथ धोने का कतई रिवाज नहीं है। चाहे वे जूते का फीता खोलें या झाड़ू लगाएं या बाहर से खरीदारी करके सामान घर पर लाएं। वे प्राय: हाथ नहीं धोते। उनके प्रभाव में हमारे देश में भी पढ़े-लिखे लोग इन बातों को दकियानुसी मानते हैं और इनका मजाक उड़ाते हैं। इतना ही नहीं, अपनी संस्कृति में किसी का भी झूठा खाना वर्जित माना जाता है। प्राय: घरों में माता-पिता अपने अबोध बालकों का झूठा भले ही खा लें लेकिन एक-दूसरे का झूठा कोई नहीं खाता। ठाकुर जी को भोग लगाने के पीछे भी यही विज्ञान है। जब आप ठाकुर जी को भोग लगाते हैं, तो स्वच्छ शरीर से ताजा भोजन पकाते हैं और उसमें औषधीय गुण वाला तुलसी का पत्ता डाल कर भोग लगाते हैं क्योंकि ठाकुर जी को दोनों समय भोग लगता है, इसलिए घर में ताजा भोजन बनता है, जो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है।
दूसरी तरफ पश्चिमी सभ्यता में झूठे और बासी का कोई विचार नहीं है जोकि स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक है। इसी तरह बाहर के जूते-चप्पल पहन कर घर में घुसना हमारी संस्कृति में वर्जित है और हम इसका पालन करते हैं जबकि आधुनिक लोग इसका मजाक उड़ाते हैं।  बिना यह समझे कि सड़क पर फैले कीटाणुओं और बीमारियों का संग्रह करके लाते हैं हमारे जूते-चप्पल। 1978 में जब मैं जेएनयू में पढ़ने आया तो मेरे संस्कार ब्रजवासी संस्कृति के थे क्योंकि उपरोक्त सभी बातों का हमारे परिवार में तब भी पालन होता था और आज भी हम उसी तरह पालन करते हैं। मुझे यूनिवर्सिटी में यह देखकर बहुत झटका लगा कि कोई भी साथी किसी भी मित्र का झूठा खाना, पानी, कोल्ड्र ड्रिंक या चाय बड़े आराम से चख लेता है। जहां तक हमारी बात है तो हमसे तो यह आज भी नहीं होता। पिछले हफ्ते खबर छपी थी कि ‘करोना’ के भय से सुनसान पड़ीं इटली के मशहूर शहर ‘वेनिस’ की लहरों में अचानक हजारों मछलियां,  यहां तक कि डॉल्फिन भी, मस्ती से घूम रही हैं।  नहरों के किनारे बसे इस ऐतिहासिक शहर में सारे साल दुनियाभर के पर्यटक आते हैं, जिनके कारण इन नहरों का पानी गंदला बना रहता था। आज वेनिसवासी नीला साफ पानी और रंग-बिरंगी मछलियां देखकर आह्लादित हैं। हजारों की तादाद में उड़ने वाले हवाईजहाजों के कारण हर बड़े शहर के आकाश पर काली धुंध छाई रहती थी। मात्र दो हफ्ते में यह धुंध काफी छट गई है और नीला आकाश साफ दिखाई दे रहा है। अचानक सैकड़ों किस्म के पक्षी शहरों की ओर लौट रहे हैं, जिनका कलरव सुना जा सकता है। कुछ लोग सोशल मीडिया पर मजाक में लिख रहे हैं कि ‘कोरोना’ वायरस  नहीं है, बल्कि वैक्सीन (टीका) है। वायरस तो मानव जाति है, जिसने पृथ्वी के स्वास्थ्य को बीमार कर दिया हैं।
हम जरा अपने गिरेबां में झांकें, अंधाधुंध तेल-पेट्रोल का प्रयोग, कारखानों से उगलता धुआं, नदियों में गिरते नाले, कभी न नष्ट होने वाले पैकेजिंग मैटीरियल के अंबार जो पृथ्वी की सांस घोंट रहे हैं। निर्माण के लिए पहाड़ों की बेर्दद तुड़ाई अैर वृक्षों का अंधाधुंध काटा जाना, खेती में रासायनिक उर्वरकों का अधिक प्रयोग और प्रकृति तथा मौसम के प्रतिकूल हमारी दिनचर्या, इस सबने इस खूबसूरत धरती को बीमार कर दिया है। आज तो केवल ‘कोरोना’ ने ही अपना भयावह रूप दिखाया है। अभी ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ के परिणाम जब सामने आऐंगे तो दुनिया के हर समुद्रतटीय शहर में निश्चित है कि हाहाकार मच जाएगा। भगवान श्रीकृष्ण की द्वारका की तरह मालदीव जैसे देश कहां डूब जाएंगे, यह पता भी नहीं चलेगा। साढ़े चार करोड़ वन्य जंतु ऑस्ट्रेलिया के जंगलों की आग में जल गए। जापान का सुनामी और केदारनाथ की जल प्रलय को क्या हम कभी भुला पाएंगे। कतई नहीं भूल पाएंगे। इसलिए तो लगता है कि आज ‘कोरोना’ ‘करुणावतार’ बनकर आया है। भगवान कृपा करें और हम इससे फैलने वाली महामारी पर नियंत्रण पाया जा सकें पर यह समय एक बार फिर अपनी जीवन दृष्टि पर चिंतन करने का है। जितना हम प्रकृति से दूर रहेंगे, उतना ही हमारा जीवन अप्रत्याशित खतरों से घिरा रहेगा। इसलिए ‘जब जागो तभी सवेरा’।

विनीत नारायण


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