स्मृति : बसावन बाबू की विरासत
हिंदुस्तान के इतिहास में ही 23 मार्च की तारीख स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। इसी दिन भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को ब्रितानी हुकूमत ने फांसी पर लटका दिया था।
स्मृति : बसावन बाबू की विरासत |
मशहूर समाजवादी बसावन सिंह का जन्मदिन भी इसी तारीख को पड़ता है।
हाजीपुर की बगल के ‘सुभई’ (जमालपुर) में जन्मे बसावन सिंह के सिर पर से मात्र 8 साल में ही पिता का साया उठ चुका था। 1926 में प्रथम श्रेणी में मैट्रिक पास करके मुजफ्फरपुर के जीबीबी कॉलेज में दाखिल हुए। वहां इनकी मित्रता योगेंद्र शुक्ल से हो गई। कालांतर में दोनों मित्र ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ के सदस्य बन गए और इनके नेता थे भारत के महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद। बसावन बाबू ने अलग-अलग समय पर कुल करीब 18 साल जेल में बिताए। जब 1937 की सरकार का गठन हुआ तो कांग्रेसियों ने मो. यूनुस की सरकार का विरोध करने की ठान ली। पटना में रामवृक्ष बेनीपुरी (अध्यक्ष, पटना कांग्रेस), जयप्रकाश नारायण और बसावन सिंह के नेतृत्व में जुलूस निकला। लाठियां चलीं। गिरफ्तारी हुई।
तीनों अग्रणी को 3 महीने के लिए हजारीबाग जेल भेज दिया गया। इसी बीच कांग्रेसी हुकूमत बनने के बाद से ही चंद शीर्ष कांग्रेसियों (राजेन्द्र बाबू, श्री बाबू, अनुग्रह बाबू, जगलाल चौधरी और कृष्णवल्लभ सहाय) को छोड़ कर बाकी कांग्रेसियों ने समाजवादी गुट के साथ अपने आचार-व्यवहार में परिवर्तन लाना शुरू कर दिया था। समाजवादी खेमे के लोग भी अपनी सरकार बनने के बाद किसान और मजदूरों के संगठन बनाने पर जोर देने लगे और इस तरह से बाबू बसावन सिंह मजदूरों के बीच कुशल नेतृत्व चातुरी से सब को चकित करने लगे। डालमिया नगर में सैकड़ों मजदूरों के साथ बसावन सिंह को जेल भले ही जाना पड़ा मगर अंत में जीत बसावन सिंह की ही हुई।
बसावन बाबू श्रमिकों के मसीहा के रूप में उभर चुके थे। जेल यात्राएं लगी ही रहती थीं। 1942 की अगस्त क्रांति शुरू हो चुकी थी। बसावन बाबू गया जेल में कैद थे। वहीं उनके साथ रामानंद तिवारी भी पहले से ही बंद थे। हजारीबाग जेल से जयप्रकाश जी और उनके साथियों के पलायन के बाद हजारीबाग जेल में समाजवादियों के साथ ब्रितानी हुकूमत की नजर बदल गई और दंडस्वरूप बेनीपुरी को भी गया जेल में ट्रांसफर कर दिया गया। उधर जयप्रकाश जी सुरक्षित निकल कर आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे।
रामानंद तिवारी निकलने पर थे कि जेल में जयप्रकाश जी का संदेश मिलता है कि बेनीपुरी और बसावन भी जेल तोड़ कर बाहर निकलें। रामानंद तिवारी ने व्यूह रचना कर ली और जेल के बाहर गाड़ी का इंतजाम भी कर लिया। बसावन बाबू के सेल को भी खोलने का उपाय हो गया मगर इसी बीच बेनीपुरी को बीमारी के कारण अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। बसावन बाबू ने बेनीपुरी को इस हालत में अकेले छोड़ना मुनासिब नहीं समझा और बाहर खबर की कि ‘अभी भैया को छोड़ना ठीक नहीं, कुछ दिन बाद अस्पताल से उन्हें अपने साथ ले आऊंगा। फिर आगे देखेंगे। यह भी एक मानवीय पहलू है जिसका जिक्र खुद बेनीपुरी ने अपनी लेखनी से किया है।
दूसरे विश्व युद्ध की शुरु आत में डिफेंस ऑफ इंडिया ऑर्डिनेंस के तहत गिरफ्तार होने वाले प्रथम बिहारी बसावन बाबू ही थे। 1936 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना के बाद बसावन बाबू इसके लेबर सेक्रेटरी बने। 1937 में जमालपुर से श्रमिक आंदोलन की शुरु आत की। आजादी की लड़ाई में बसावन बाबू का भी अपने तमाम साथियों के साथ सुभाष चन्द्र बोस की तरफ झुकाव हो गया। आजादी के बाद समाजवादियों ने कांग्रेस से अलग होकर दल की स्थापना की। बिहार में बसावन बाबू सोशलिस्ट पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और रामवृक्ष बेनीपुरी केंद्रीय संसदीय बोर्ड के चेयरमैन और जेपी द्वारा घोषित शेडो कैबिनेट (यह प्रचलन इंग्लैंड में था जब दोनों प्रमुख दल अपने संभावित मंत्री घोषित करते थे) में मुख्यमंत्री के उम्मीदवार। बसावन बाबू 1952 में देहरी से विधानसभा पहुंचे। 1962 में विधान परिषद के सदस्य बने। 1967 में बिहार की पहली संविद सरकार में लेबर, प्लानिंग और उद्योग मंत्री बने। 1977 में भी बसावन बाबू संयोग से उसी विभाग के मंत्री बने। बिहार में तो एक तरह से 1967 से ही समाजवादियों की सरकार रही है, मगर आज तक 30 वर्षो में किसी भी सरकार ने, अपनी तरफ से इनके योगदान को याद रखने के लिए, कोई स्मारक इत्यादि नहीं बनवाया। लालू यादव के समय कुछ घोषणाएं हुई मगर सिर्फ रामानंद तिवारी की ही मूर्ति लग सकी। बेनीपुरी, योगेंद्र शुक्ल, बैकुंठ शुक्ल, सूरज नारायण सिंह और बसावन सिंह की भी मूर्ति पटना में होनी चाहिए।
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