बिहार : रोचक रण का इंतजार
सबकी नजर बिहार की तरफ है, जहां इसी वर्ष अक्टूबर-नवम्बर में विधानसभा चुनाव होने हैं। चुनावी दंगल में फिर से पुराने नैरेटिव को दोहराने की संभावना है।
बिहार : रोचक रण का इंतजार |
जद यू-भाजपा का गठबंधन 15 वर्षो से सत्तासीन है। बावजूद दोनों में ऐसी बिसात नहीं बन पाई जो कोई एक अपने बूते चुनाव जीत सके। यही कारण है कि भाजपा आलाकमान को मुख्यमंत्री के लिए नीतीश कुमार अपरिहार्य लगते हैं और कमोबेश यही स्थिति नीतीश की है।
इस राजनीतिक जोड़ी के निशाने पर लालू का शासनकाल ही रहता है, जिसे वे जंगलराज कहकर चुनावी माहौल बनाने में सफल हो जाते हैं। सनद रहे कि आंकड़ा-आधारित विश्लेषण की तुलना में नैरेटिव मतदाताओं को ज्यादा तेजी से प्रभावित कर जाते हैं। इस संदर्भ में जंगलराज और सुशासन का नैरेटिव प्रचार के लिए उपयोगी औजार साबित हुआ है। लालू-राबड़ी के शासनकाल (1990-2005) का जंगलराज तो नीतीश का सुशासन जैसे नैरेटिव बिहार के कई चुनावों में देखे जा चुके हैं।
1996 लोक सभा चुनाव के दौरान लालू विरोध ही भाजपा और समता पार्टी को पहली दफा करीब लाया था। यूं तो लालू-नीतीश के राजनीतिक कॅरियर की शुरु आत जेपी आंदोलन से हुई। लालू छात्र नेता के तौर पर जेपी का विश्वास हासिल कर आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे तो नीतीश का योगदान नेतृत्व के स्तर पर अंकित नहीं है। 1977 में लालू ने छपरा लोक सभा चुनाव जीत कर राष्ट्रीय राजनीति में जगह बना ली, जबकि नीतीश 1977 (जनता पार्टी) और 1980 (जनता पार्टी सेक्युलर) के विधानसभा चुनावों में शिकस्त झेलने के बाद 1985 में पहली बार लोक दल के चुनाव चिह्न पर हरनौत विधानसभा क्षेत्र से विधायक बन पाए। जनता दल के टिकट पर ही 1989 और 1991 में सांसद बने। संसद की पहली पारी में ही वीपी सिंह के नेतृत्व में बनी राष्ट्रीय मोर्चा-वाम मोर्चा की सरकार में राज्य मंत्री भी बने। इस दौरान लालू लगातार दो बार विधानसभा (1980-89) में बने रहे और इन्हीं दिनों कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद वह विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष भी बने। 1990 में जनता दल की सरकार के मुखिया बने और बतौर मुख्यमंत्री लालू का पहला कार्यकाल बेहद चर्चित रहा। मंडल आयोग की सिफारिश लागू करवाने में उनकी भूमिका और आडवाणी की रथ यात्रा रोकने के साथ उनकी गिरफ्तारी ने लालू को राष्ट्रीय राजनीति में अलग पहचान दी।
नीतीश ने 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव में सीपीआई एमएल के साथ गठबंधन कर पहली बार चुनाव लड़ा तो करारी हार का सामना करना पड़ा। मात्र 7 सीट ही हासिल हो सकीं। असफलता से विचलित होकर उन्होंने 1996 में बीजेपी से गठबंधन कर दक्षिणपंथी वैचारिकी से नाता जोड़ लिया। बाबरी विध्वंस के पश्चात हिंदी पट्टी में अलग-थलग पड़ी हिंदुत्व राजनीति को समता पार्टी ने गठबंधन कर स्वीकार्यता प्रदान की। 2000 में मात्र सात दिनों के अल्पकालिक मुख्यमंत्री से लेकर अभी तक छठी बार मुख्यमंत्री बने हुए हैं। हरेक विचारधारा के साथ गठबंधन किए और सत्ता पर काबिज रहे वहीं लालू दक्षिणपंथी राजनीति के मुखर विरोधी के तौर पर चर्चित रहे। एनडीए शासन के दौरान हुए दर्जनों घोटालों और घटनाओं में कानून व्यवस्था में बड़ी चूक भी दिखी। सृजन घोटाला ने वित्तीय अनियमितता के अनूठे नमूने पेश किए वहीं मुजफ्फरपुर शेल्टर होम रेप की दर्दनाक घटना कानून व्यवस्था का माखौल उड़ाती दिखी। शराबबंदी हो या चमकी बुखार का कहर, बाढ़ विभीषिका का प्रकोप हो या पटना में जलजमाव से बाढ़, परीक्षा में कदाचार हो या शिक्षक बहाली धांधली जैसे मुद्दे सुशासन की बुरी तस्वीर पेश करते हैं। अर्थव्यवस्था पर नीति आयोग के रिपोर्ट हो या विधि व्यवस्था पर राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की रिपोर्ट, बिहार को निम्नतम पायदान पर जगह देती हैं।
ट्रिपल तालाक, धारा 370 और सीएए पर जदयू का वैचारिक समझौता काफी चर्चा में रहे, जिसके कारण दल की छवि काफी धूमिल हुई है। हाल ही में एनआरसी और एनपीआर के खिलाफ बिहार विधानसभा में प्रस्ताव पारित कराने में वे मुख्य विपक्षी दल के साथ दिखे लेकिन इसके लिए जद-यू से ज्यादा राजद की उपलब्धि मानी जा रही है। कमोबेश वही स्थिति जातीय जनगणना पर पारित प्रस्ताव के संदर्भ में कही जा रही है। विधान पाषर्द रहते अपने तीसरे कार्यकाल में नीतीश इस बार भी विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर पेश किए जाएंगे लेकिन खुद विधानसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे। सुशासन, विकास और कानून व्यवस्था पर कठिन सवालों से घिरे और विचारधारा संकट से बुरी तरह जूझते नीतीश क्या जंगलराज का राग अलापने का जुर्रत कर पाएंगे? दृश्य दिलचस्प होगा।
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