अफगानिस्तान : इतिहास दोहराने की ओर
हम कोई समानांतर सरकार बनाने और राजनीतिक मतभेदों को सुलझाने के लिए बल के इस्तेमाल का कड़ाई से विरोध करते हैं।’
अफगानिस्तान : इतिहास दोहराने की ओर |
अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपियो ने बीती 9 मार्च को अफगानिस्तान में घटे राजनीतिक संकट पर यह टिप्पणी की। ध्यान रहे कि 9 मार्च को अफगानिस्तान में एक तरफ राष्ट्रपति अशरफ गनी तो दूसरी तरफ अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने भी राष्ट्रपति पद की शपथ ग्रहण की थी। इससे वहां राजनीतिक संकट उत्पन्न हो गया।
सवाल उठता है कि अमेरिका प्रत्येक किस्म की कड़ी कार्रवाई का विरोध कर रहा है, तो इसका मतलब क्या समझा जाए? एक तरफ तो वह अशरफ की सरकार को वैध मानता है और दूसरी तरफ अब्दुल्ला अब्दुल्ला के खिलाफ बल प्रयोग का समर्थन नहीं करता। तब तो दोनों सरकारें कैसे अस्तित्व में रहेंगी? सवाल यह भी कि दोहा में संपन्न अमेरिका-तालिबान समझौते का अंतिम परिणाम क्या होगा? वर्तमान में अफगानिस्तान की स्थिति यह है कि जाबोल से लेकर कुंदूज और जलालाबाद तक इस्लामी स्टेट (आईएस), इस्लामी मूवमेंट उज्बेकिस्तान (आईएमयू) और तालिबान का दबदबा बना हुआ है। चूंकि तालिबान के साथ अमेरिकी समझौते के बाद पाकिस्तान का मनोबल बढ़ेगा जो दक्षिण एशिया में आंतकवाद की नाभि माना जाता है तो क्या माना जाए?
दरअसल, पूरब में भारत तथा चीन और पश्चिम में फारस व मध्यसागरीय दुनिया के बीच एक ऐसा जंक्शन है, जहां इतिहास में प्राय: वैश्विक शक्तियों की महत्त्वाकांक्षाओं को टकराते देखा गया है। इसलिए यह कई सदियों तक तमाम संस्कृतियों के केंद्र एवं पड़ोसियों का मिलन स्थल तथा प्रवास एवं आक्रमण का ‘फोकल प्वाइंट’ रहा। आज भी स्थितियां बदली नहीं हैं लेकिन अब जब अमेरिका अफगानिस्तान से हटना चाहता है तब पूछना तो बनता ही है कि जिसकी तरफ से 9/11 की घटना के बाद ‘वार इंड्यूरिंग फ्रीडम’ की घोषणा की गई थी और अलकायदा-तालिबान के खात्मे के नाम पर अफगानिस्तान का ध्वंस किया गया, वह अब पलायनवादी रवैया क्यों अपना रहा है? क्या वास्तव में अफगानिस्तान में अमेरिका की वह लड़ाई पूरी हो गई है, जिसे 2001 में पूरी दुनिया के सामने पेश किया गया था?
ये सवाल कुछ कारणों को ध्यान में रखकर उठाए जा रहे हैं। पहला, अमेरिकी अर्थव्यवस्था की सांसें फूली हुई हैं और ‘पोस्ट कोरोना सिनारियो’ और अधिक प्रतिकूल साबित होने वाला है। दूसरा शायद यह कि अमेरिका अफगानिस्तान में तालिबान से लड़ते-लड़ते थक चुका है। वैसे यह बात कुछ वर्ष पहले मुल्ला उमर के गुरु आमिर सुल्तान तरार उर्फ कर्नल इमाम ने कही थी। किसी जमाने में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी के प्रमुख एजेंट रहे कर्नल इमाम 1980 के दौरान अफगानिस्तान के प्रमुख आतंकी सरगनाओं और लड़ाकों को प्रशिक्षण दे चुके हैं तथा अफगानिस्तान में सोवियत सेना के खिलाफ युद्ध लड़ चुके हैं। इमाम का कहना था कि तालिबान कभी नहीं थकेंगे क्योंकि उन्हें लड़ने की आदत है। अमेरिकी सेना को खदेड़ तो नहीं सकते लेकिन उसे थका सकते हैं।
सच भी है कि जो तालिबान अस्सी के दशक से लगातार उसी भूमि पर लड़ रहे हैं, उन्हें अफगानिस्तान की भूमि पर युद्ध लड़ने का तजुर्बा अमेरिकी सेना से कहीं अधिक रहा। क्या दूसरी बात पूरी तरह से सच साबित नहीं हो रही? एक बात और, कुछ समय पहले अमेरिकी सीनेट की कमेटी के समक्ष संघीय जांच ब्यूरो (एफबीआई) ने कहा था कि सैन्य प्रयासों के बावजूद अफगानिस्तान में तालिबान अपनी स्थिति मजबूत कर रहा है। इसे देखते हुए डिफेंस डायरेक्टर ले. जनरल ने ट्रंप प्रशासन से अपील की थी कि क्षेत्र में मौजूदा दौर में सक्रिय 20 आतंकी संगठनों से निपटने के लिए वह अफगानिस्तान के पड़ोसी देशों के साथ मिलकर काम करे क्योंकि इन संगठनों से न केवल अफगानिस्तान और पाकिस्तान, बल्कि पूरे क्षेत्र को खतरा है। इसके बाद से ट्रंप प्रशासन ने दो मोचरे पर काम करना शुरू कर दिया। एक, पाकिस्तान और तालिबान का तुष्टिकरण ताकि तालिबान के साथ समझौता हो सके; और दूसरा, भारत को इस गोल में लाने का प्रयास ताकि भारत इस लड़ाई में और सक्रिय भूमिका निभा सके। अब अमेरिका तालिबान के सामने समर्पण की स्थिति को व्यक्त करता दिख रहा है क्योंकि दोहा में उसने तालिबान के साथ समझौता कर उसे अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्रदान कर दी है। ऐसे में बड़ी चिंता का विषय होना चाहिए कि आगे की लड़ाई गनी की सरकार या अफगानिस्तान की लोकल फोर्सेज कैसे लड़ पाएंगी? वह भी उन स्थितियों में जब राजनीतिक व्यवस्था स्वयं संकटग्रस्त हो? अफगानिस्तान में शांति की स्थापना हो और अमेरिकी फौजें विदाई लें, इसके लिए अमेरिका और तालिबान के बीच लगभग 32 देशों के प्रतिनिधियों की उपस्थिति में 29 फरवरी, 2020 को दोहा में शांति समझौते पर हस्ताक्षर हुए। अमेरिका और तालिबान के बीच अगली वार्ता नाव्रे की राजधानी ओस्लो में होनी थी, लेकिन बदली परिस्थितियों में कुछ कहना मुमकिन नहीं। कारण यह कि अभी अफगान सरकार और तालिबान के बीच में जो समझौता होना था, वह नहीं हो पाया है और जब तक अफगानिस्तान में राजनीतिक संकट बना हुआ है, तब तक इसकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती।
ध्यान देने योग्य बात है कि दोहा समझौते के बाद चूंकि तालिबान को एक प्रकार से अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त हो गई है, इसलिए अब वह अफगानिस्तान में अलकायदा और इस्लामी स्टेट सहित उस क्षेत्र में बिखरे तमाम आतंकी संगठनों के साथ बेहतर बॉण्डिंग कर सकते हैं। यह स्थिति पाकिस्तान के लिए भी एक अवसर होगी, जिसका प्रयोग वह भारत की पश्चिमी सीमा पर कर सकता है। इसका अर्थ तो यही हुआ कि अमेरिका ने दोहा में जो स्क्रिप्ट लिखी उसमें शांति की संभावनाएं बेहद कम हैं। फिलहाल, अफगानिस्तान नया इतिहास लिखने की कोशिश में है, लेकिन स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि यह इतिहास कैसा होगा? इसके अध्याय में पठान, उज्बेक, पश्तून, हजारा, ताजिक..आदि कबीले मिलकर काबुलीवाले के देश को 21वीं सदी की विशेषताओं से विश्लेषित करेंगे या फिर तालिबान उसे मध्ययुग की कट्टरतापूर्ण तानाशानी की ओर ले जाएगा? बहरहाल, जब गनी और अब्दुल्ला अब्दुल्ला के राजनीतिक हित टकरा रहे हों तथा पाकिस्तान, तालिबान व अन्य आतंकी समूह धाक लगाए बैठे हों और अमेरिका पलायनवादी नजरिया अपना रहा हो, तब अनुमान लगाया जा सकता है कि अफगानिस्तान का भविष्य कैसा होगा?
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