एन-95 मास्क : जमाखोरी के मर्ज से बेहाल
अगर यह जानकारी प्रकाश में आए कि देश के सबसे बड़े अस्पताल अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) से 1 हजार एन-95 मास्क रातोंरात गायब हो गए हैं, तो इससे पता चलता है कि हमारा स्वास्थ्य तंत्र आम जनता के इलाज और उसके संक्रामक बीमारियों से बचाने के मामले में कितना लापरवाह बना हुआ है।
एन-95 मास्क : जमाखोरी के मर्ज से बेहाल |
मामला सिर्फ एक जगह से मास्क गायब होने का नहीं है। संक्रमणों से बचाने में मददगार हैंड सैनिटाइजर की केमिस्ट की दुकानों पर किल्लत और उनके अनाप-शनाप दामों की भी है। कोरोना वायरस के घातक संक्रमण के बीच विश्व स्वास्थ्य संगठन तक ताकीद कर चुका है कि लोगों तक मास्क और सैनिटाइजर पहुंचाए जाएं, जमाखोरी और मुनाफाखोरी की ये मिसालें साबित करती हैं कि कोरोना के मरीजों से ज्यादा बीमार तो दवा दुकानदारों, एजेंटों और अस्पतालों का तंत्र है।
दावा है कि एम्स के ट्रामा सेंटर में रखे मास्क चोरी हो गए थे, जिसकी वजह से मरीज ही नहीं, आपातकालीन विभाग में भी कर्मचारियों को मास्क नहीं दिए गए। बीते कई दिनों से एम्स में कोरोना वायरस के संदिग्ध मरीजों की स्क्रीनिंग चल रही है। ऐसे में वहां मरीजों के साथ उनके तीमारदारों को भी उपयुक्त मास्क और हाथ धोने के लिए हैंड सैनिटाइजर मुहैया कराना अस्पताल की जिम्मेदारी है। लेकिन दावा है कि ट्रामा सेंटर से मास्क गायब होने के बाद ट्रामा सेंटर में तैनात डॉक्टरों, नसरे और पैरामेडिकल स्टाफ ने किसी को भी मास्क देने से इनकार कर दिया था। एम्स जैसे संस्थान में मास्क चोरी की घटना तकलीफदेह है पर उससे ज्यादा तकलीफ इसकी है कि प्रशासन और सरकार की नाक के नीचे हैंड सैनिटाइजर और मास्क या तो मूल कीमतों से ढाई-तीन गुना कीमत पर बेचे जा रहे हैं, या उनका कृत्रिम अभाव पैदा किया जा रहा है।
बताते हैं कि दिल्ली में जो मास्क या सैनिटाइजर पहले 150 रु पये में मिलता था, वह अब 250 रु पये तक का मिल रहा है। जिन दुकानों में ये सीमित मात्रा में हैं, वहां सप्लाई में कमी को देखते हुए इनकी ऊंची कीमतें वसूल की जा रही हैं। लेकिन ये ऐसी चीजें नहीं हैं, जिनके निर्माण में किसी विशेष कौशल की जरूरत होती है। मांग के मुताबिक इन्हें बड़े पैमाने पर तुरंत बनाया जा सकता है। यह भी जरूरी नहीं है कि बाजार में ये सामान सिर्फ एक ही कंपनी या ब्रांड के बेचे जाएं। लेकिन ऐसा हो रहा है तो इसमें निश्चय ही फार्मा कंपनियों, डॉक्टरों और अस्पतालों के किसी गठजोड़ की भूमिका देखी जा सकती है। ऐसे मौकों पर तो सरकार को पूर्वानुमान लगाते हुए तैयारी के निर्देश देने चाहिए। फार्मा कंपनियों को वह निर्देश दे सकती थी कि कोरोना के असर के दौरान मास्क, हैंड सैनिटाइजर के अलावा जरूरी दवाओं की आपूर्ति बाजार में बढ़ाएं। सरकार के साथ प्रशासन की कोशिश आवश्यक दवाओं, मास्क आदि उपकरणों की जमाखोरी रोकने की होनी चाहिए। अगर उसके संज्ञान में ऐसी घटनाएं लाई जाती हैं कि कहीं इन चीजों का नकली अभाव पैदा किया जा रहा है, तो कानून उसे जमाखोरों के खिलाफ कड़ा एक्शन लेने और उन्हें सजाएं देने से रोकता नहीं है। विडंबना है कि जमाखोरी कर वस्तुओं का कृत्रिम अभाव पैदा करने के मामलों को सिर्फ खाने-पीने की चीजों के नजरिये से ही देखा जाता रहा है जबकि इससे कहीं ज्यादा गोरखधंधे फार्मा उद्योग से जुड़े हुए हैं। इसकी बड़ी वजह यह है कि इलाज का सरकारी ढांचा ज्यादातर मामलों में मरीजों की उपेक्षा ही करता है। ऐसे में लोग निजी अस्पतालों में जाते हैं, जहां दवाओं की कीमत ही उन्हें मार देती है।
असल में, स्वास्थ्य क्षेत्र के निजीकरण के नाम पर पिछले कुछ दशकों में जिस तरह सरकारी अस्पतालों को हाशिये पर पहुंचाया गया है, उसी का एक पहलू यह है कि आम मरीजों को सरकारी अस्पतालों से दवाएं मिलनी लगभग बंद हो चुकी हैं। आकलन है सिर्फ 9 फीसदी दवाएं ही अस्पताल से दी जाती हैं, बाकी दवाएं उन्हें बाहर से मंगानी पड़ती हैं। डॉक्टरों और दवा उद्योग की सांठगांठ महंगी दवाओं के बल पर गरीबों को चूस डालती है। इस साठगांठ को तोड़ा जा सके तो भी हालात सुधर सकते हैं। पर ऐसा कम ही होता है कि जब आम मरीजों के साथ होने वाली धोखाधड़ी की शिकायतों को गंभीरता से सुना जाए। यह तो और भी कम होता है कि आरोप साबित होने पर अस्पताल, डॉक्टर या जमाखोर केमिस्ट अपने किए की सजा पाएं। अक्सर ऐसे मामलों को चिकित्सा पेशे की पवित्रता के नाम पर और इलाज करने वाले डॉक्टर को प्रभावित नहीं करने की सलाह के साथ दबा दिया जाता है, पर वक्त आ गया है कि इन पर गंभीरता दिखाई जाए अन्यथा संक्रमण के कोरोना हमारे देश-समाज की सेहत तबाह करते रहेंगे।
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