मध्य प्रदेश : राजनीतिक भंवर में कांग्रेस
ज्योतिरादित्य सिंधिया के हटने के बाद कांग्रेस के सामने दो बड़े सवाल हैं। एक, पहले से ही जर्जर नेतृत्व की साख को फिर से स्थापित कैसे होगी और दूसरा, पार्टी के युवा नेताओं को भागने से कैसे रोका जाएगा? हताशा बढ़ रही है।
मध्य प्रदेश : राजनीतिक भंवर में कांग्रेस |
उत्तर भारत के तीन और महत्वपूर्ण नेता पार्टी छोड़ने की फिराक में हैं। बार-बार मिलती विफलता और मध्य प्रदेश के ड्रामे ने कमर तोड़ दी। ज्योतिरादित्य के साथ 20 से ज्यादा विधायकों ने पार्टी छोड़ी है। राजनीतिक भंवर में घिरी कांग्रेस को यह जबर्दस्त धक्का और चेतावनी है। इस परिघटना का डोमिनो प्रभाव होगा।
उधर, बैकफुट पर नजर आ रही बीजेपी को मध्य भारत में फिर से पैर जमाने का मौका मिल गया है। मध्य प्रदेश में सरकार बनाने के अलावा भाजपा राज्य सभा की एक अतिरिक्त सीट झटकने में भी कामयाब हो सकती है। प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी सिंधिया अच्छे वक्ता हैं, और समझदार राजनेता। पंद्रह महीने पहले मध्य प्रदेश और राजस्थान ने कांग्रेस के पुनरोदय की उम्मीदें जगाई थीं पर अब दोनों राज्य नकारात्मक संदेश भेज रहे हैं। पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व पर सवालिया निशान हैं। इस परिघटना ने कुछ और युवा नेताओं के पलायन की भूमिका तैयार कर दी है। ज्यादातर ऐसे नेता राहुल गांधी के करीबी हैं, जो किसी न किसी वजह से अब नाराज हैं। मंगलवार को ज्योतिरादित्य के इस्तीफे के बाद राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने ट्वीट किया, ‘सिंधिया ने न केवल जनता, बल्कि विचारधारा से दगा की है। ऐसे लोग साबित कर रहे हैं कि वे सत्ता-सुख के बगैर नहीं रह सकते। वे जितनी जल्दी चले जाएं उतना अच्छा’। कौन हैं ‘ऐसे लोग?’ किसके लिए है यह इशारा? आपसी टकराव स्पष्ट है। कमान बेशक, सोनिया गांधी के हाथ में है, पर भविष्य का नेतृत्व स्पष्ट नहीं है। कार्यकर्ता का भरोसा कम होता जा रहा है। इस घटनाक्रम का पहला असर 26 मार्च को होने वाले राज्य सभा चुनाव पर तो पड़ेगा ही, देर-सबेर राजस्थान सरकार के लिए भी खतरा पैदा होगा। राज्य सभा के मनोनयन की आखिरी तारीख 13 मार्च है। पता नहीं बीजेपी की ओर से ज्योतिरादित्य का मनोनयन इस सीट के लिए होगा या नहीं, पर इतना तय है कि भाजपा इसे पूरा भुनाएगी। इस साल बिहार और फिर अगले साल असम और पश्चिमी बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनाव पर भी इस घटनाक्रम का असर होगा।
फिलहाल मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार की कहानी खत्म है। कमलनाथ ने मध्यावधि चुनाव कराने की धमकी दी है पर अल्पमत में आने के बाद उनके पास यह अधिकार नहीं बचा। पिछले कुछ महीनों में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने बीजेपी के नेतृत्व के साथ केवल अपने बारे में ही बात नहीं की होगी, बल्कि अपने सहयोगियों के बारे में भी विचार किया होगा। अब 16 मार्च से राज्य विधानसभा का सत्र शुरू होने वाला है। उसके पहले या बाद वहां नई सरकार बनाने की गतिविधियां चलेंगी। राज्यपाल लालजी टंडन, जो पांच दिन के लिए लखनऊ गए थे, अब छुट्टियों से वापस लौट आए हैं। यह घटनाक्रम एक हफ्ते की कहानी नहीं है, बल्कि इसके पीछे सिंधिया परिवार का दीर्घकालीन आक्रोश है। इस आक्रोश ने डेढ़ साल पहले दिसम्बर, 2018 में निर्णायक मोड़ ले लिया था जब ज्योतिरादित्य को मुख्यमंत्री पद से वंचित किया गया। पार्टी ने लंबे असमंजस के बाद कमलनाथ को मुख्यमंत्री पद पर स्थापित जरूर कर दिया पर अविश्वास की दरार तभी पड़ गई थी। यह आक्रोश केवल ज्योतिरादित्य के साथ जुड़ी परिघटनाओं के कारण ही नहीं था। उनके पिता माधवराव सिंधिया को भी मुख्यमंत्री पद से वंचित रहना पड़ा था। मध्य प्रदेश कांग्रेस की आंतरिक राजनीति में इसके कारण छिपे हैं।
मध्य प्रदेश कांग्रेस में इस हफ्ते हुई उथल-पुथल का सारा दोष पार्टी नेतृत्व ने बीजेपी पर डालने की कोशिश की पर सच यह है कि यह उसकी विफलता है। सोमवार की रात कमलनाथ ने अपने निवास पर कैबिनेट की बैठक बुलाई, जिसमें सभी मंत्रियों ने इस्तीफे दे दिए। कमलनाथ ने कहा, ‘मैं माफिया की मदद से पैदा की जा रही अस्थिरता की कोशिशों को सफल होने नहीं दूंगा। बीजेपी मेरी सरकार को अस्थिर करने के लिए अनैतिक तरीकों का इस्तेमाल कर रही है। बेशक, सिंधिया के बीजेपी के साथ सम्पर्क सूत्र जुड़े थे, पर असल सच यह है कि यह सब कांग्रेस की अंदरूनी कमजोरियों की देन है। कुछ देर के लिए लगा कि शायद यह अजित पवार जैसी बगावत है। शायद सिंधिया दबाव बना भी रहे थे, पर लंबी कोशिशों के बाद अब कहानी का अंत लिखने का समय था। इसके पहले कमलनाथ ने सोमवार को ही दिल्ली जाकर पार्टी हाई कमान के साथ भी विचार-विमर्श किया था, पर उसी रात साफ हो गया कि काफी देर हो चुकी है। सिंधिया परिवार का आखिरी और सबसे महत्त्वपूर्ण स्तंभ भी अब बीजेपी के साथ आ चुका है। इस परिवार का आंशिक रूप से ही सही मध्य प्रदेश की राजनीति पर असर है। पिछले कुछ महीनों से सिंधिया बार-बार संकेत दे रहे थे कि उनके मन में कुछ चल रहा है। नवम्बर के महीने में उन्होंने अपने ट्विटर अकाउंट से अपना ‘कांग्रेसी परिचय’ हटाया। लोक सभा चुनाव में गुना से हार के बाद उनकी पार्टी में उपेक्षा होने लगी थी। वे मानते थे कि उनकी किनाराकशी के पीछे दिग्विजय सिंह और कमलनाथ का हाथ है। हालांकि उन्हें उत्तर प्रदेश में एक महत्त्वपूर्ण काम दिया गया पर यह साफ था कि उनकी हैसियत कमजोर होती जा रही है। अगस्त में उनकी नाराजगी और उनके समर्थकों की इस्तीफे की धमकी के बीच कमलनाथ खुद सोनिया गांधी से मिलने दिल्ली भी गए थे। इस कशमकश के बीच प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद का फैसला नहीं हुआ। ज्योतिरादित्य की हताशा बढ़ती गई।
हाल में सिंधिया ने किसानों से किए गए कर्ज माफी के वायदे को लेकर कमलनाथ सरकार की आलोचना की थी। इतना ही नहीं, उन्होंने धमकी भी दी थी कि हम सड़क पर उतरेंगे। सिंधिया और भाजपा अब इस बदलाव को एक बड़ी परिघटना के रूप में पेश करना चाहेंगे। बहरहाल, प्रदेश में राज्य सभा के लिए खाली होने वाली तीन सीटों के निर्वाचन के लिए गतिविधियां बढ़ी हैं। वर्तमान सदस्यों दिग्विजय सिंह, प्रभात झा और सत्यनारायण जटिया का कार्यकाल 9 अप्रैल को समाप्त होगा। ज्योतिरादित्य और उनके समर्थकों के हटने के पहले तक बीजेपी और कांग्रेस की एक-एक सीट पक्की थी। तीसरी सीट पर कांग्रेस की स्थिति बेहतर थी, पर अब समीकरण बदल गया है। वर्तमान संकट के पीछे वोटों की यह पृष्ठभूमि है। अब पूरी स्थिति पर नजर डालें तो साफ है कि राज्य में सरकार के अलावा राज्य सभा की तीसरी सीट भी बीजेपी को मिल सकती है।
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