जन्मशती : एक जरूरी लेखक रेणु

Last Updated 04 Mar 2020 02:57:46 AM IST

इस वर्ष 4 मार्च का दिन कुछ खास है क्योंकि इस रोज से रेणु-जन्मशती का आरंभ हो रहा है। कथाकार-उपन्यासकार फणीरनाथ रेणु।


जन्मशती : एक जरूरी लेखक रेणु

4 मार्च, 1921 को बिहार के तत्कालीन पूर्णिया जिले के छोटे-से गांव औराही-हिंगना में उनका जन्म हुआ था। 4  मार्च, 2021 को जन्मशती पूरी होगी। सूचनाओं के आधार पर कह सकता हूं, हिंदी भाषा-भाषियों के बीच रेणु-जन्मशती को लेकर उत्साह है। अनेक पत्रिकाओं ने वर्ष भर रेणु-विमर्श के आयोजन किए हैं। इस रूप में प्रेमचंद के बाद रेणु दूसरे लेखक होंगे जिनकी जन्मशती को लेकर हिंदी भाषियों के बीच विरल उत्साह है। 
क्या है रेणु में जो उन्हें आज भी प्रासंगिक बनाये हुए है? लोग उन्हें पढ़ते हैं, याद करते हैं, चर्चा करते हैं। अनेक लेखकों ने उनकी आंचलिकता को आत्मसात करते की कोशिश की है। अनेक पर अनेक तरह से उनके प्रभाव परिलक्षित हैं। हालांकि रेणु की नकल करना अथवा आत्मसात करना मुश्किल है, फिर भी उनमें कुछ  है कि अनेक लेखक ऐसा करने की कोशिश करते दिखते हैं। इसे नये लेखकों का रेणु से जुड़ाव या अनुराग ही कह सकते हैं। रेणु के प्रति नये रचनाकारों का अनुराग ही उन्हें जीवंत, प्रासंगिक और महत्त्वपूर्ण बनाता है।
लेकिन वह केवल लेखकों के बीच ही प्रासंगिक नहीं हैं। जनसामान्य में भी उनकी लोकप्रियता कुछ खास है। यहां तक कि आज की डिजिटल पीढ़ी के तरु ण भी उनकी तरफ वैसे ही आकर्षित हैं जैसे उनके वरिष्ठ। उनकी कहानी ‘लाल पान की बेगम’, ‘पंचलाइट’, ‘ठेस’  या सबसे बढ़ कर ‘तीसरी कसम’ आज भी लोगों को गुदगुदाती है। इन सब के न जाने कितनी जुबानों में अनुवाद हुए। कितने नाट्य और दृश्य -रूपांतर हुए। हालांकि इन्हें रूपांतरित करना अत्यंत मुश्किल है। लेकिन लोगों ने कोशिशें तो की ही हैं।

उनके जीवनकाल में ही जर्मन विद्वान लोठार लुत्से ने उनकी कुछ कहानियों के जर्मन जुबान में अनुवाद किए थे। उनका साक्षात्कार लेने के लिए वह भारत आए थे। उनकी कहानी ‘आत्मसाक्षी’,जो एक बदनसीब कम्युनिस्ट कार्यकर्ता गनपत की कहानी है, को लेकर लुत्से ने जो सवाल रेणुजी से किए थे, वे आज भी प्रासंगिक हैं। रेणु  ने जो जवाब दिए थे, उसमें उन राजनैतिक कार्यकर्ताओं की पीड़ा उभर कर आती है, जो अपनी पार्टयिों में लगातार छले जा रहे हैं। आम तौर माना जाता रहा है कि रेणु आंचलिक लेखक हैं। उनकी यह तस्वीर हिंदी-साहित्य के उन आलोचकों ने बनाई, जो खुद मायोपिक अथवा तंग-नजरिये के शिकार थे। उनका कालजयी उपन्यास ‘मैला-आंचल’ केवल अंचल विशेष की कहानी नहीं, बल्कि हमारे राष्ट्रीय आंदोलन की खास व्याख्या भी है। आंचलिकता तो उसका शिल्प है। ‘मैला आंचल’ आजादी मिलने के तुरंत बाद के उस हलचल को दिखाता है, जो भारत के गांवों में आरंभ हुआ था। यह बिहार के एक गांव की कहानी है, लेकिन इसे आप भारत के लाखों गांवों की कहानी भी कह सकते हैं।
पश्चिमी विद्वानों का मानना था  कि भारत का ग्रामीण ढांचा लोकतंत्र को बाधित करेगा। उन्हें यहां लोकतंत्र की सफलता पर संदेह था। लेकिन रेणु तो एक गांव के ही लोकतंत्रीकरण की कहानी कहते हैं। उनका दूसरा उपन्यास ‘परती-परिकथा’ भी इसी कहानी को आगे बढ़ाता है। गांव में जाति -बिरादरी है, जाति-टोलों में विभाजन है, उनके आंतरिक टकराव हैं,  जोतखीजी की तरह कुंठित प्रवृत्ति के मनहूस लोग हैं, लेकिन इन सबके बीच राजनैतिक सक्रियताएं भी हैं। अच्छे-बुरे के बीच सामाजिक स्तर पर संग्राम चल रहे हैं। कालीचरण जैसे सोशलिस्ट कार्यकर्ता अपनी तरह से लोकतंत्र को समझना चाहते हैं। बावनदास गांधी की तरह शहीद हो रहे हैं और डॉ प्रशांत-कमली और जित्तन चुपचाप नये प्रबुद्ध भारत की ओर बढ़ रहे हैं। यह आंचलिकता नहीं, एक समग्र परिदृष्टि है, जिसे रेणु ने गढ़ने की कोशिश की है। आजादी के बाद के भारत को समझने के लिए रेणु को पढ़ना उतना ही जरूरी है, जितना क्रांति बाद के फ्रांसीसी समाज को समझने के लिए बाल्जाक को पढ़ना। मौजूदा भारत के अनेक सामाजिक-राजनैतिक सवालों के जवाब हमें रेणु साहित्य में मिल सकेंगे। अपने उपन्यास ‘जुलूस’ में उन्होंने जिस तरह वतन, देश और राष्ट्र को समझने का प्रयास किया है, वह आज भी विचारणीय है। पूर्वी पाकिस्तान से आए हिंदू शरणार्थियों के टोले को गांव के लोग पकिस्तनिया टोला क्यों कहते हैं। वे  हिंदू-शरणार्थी इस मुल्क को आत्मसात करने में अक्षम रहे हैं। यहां के पशु-पक्षी सब अनजान हैं। रेणु शिद़्दत से कहना चाहते हैं कि देश  या राष्ट्र धर्मो के नाम पर नहीं, संस्कृति, जुबान और  परिवेश के आधार पर बनते और विकसित होते हैं। आज के राजनेता रेणु-साहित्य से सबक लेते तो देश-समाज का भला होता। 
मैं उन खुशनसीबों में हूं, जिन्हें कुछ समय तक उनके संग-साथ होने का अवसर मिला। वे अपने व्यक्तिव में भी उतने ही खास हैं, जितना अपने साहित्य में। ऐसे लेखक थे जिन्होंने राजनैतिक कार्यकर्ता के रूप में जीवन आरंभ किया था। वह समाजवादी आंदोलन के कार्यकर्ता रहे, भारत और नेपाल के स्वतंत्रता आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी की। जेल गए। चुनाव लड़े। लेकिन इन सबके बीच अपने लेखक को सब से ऊपर रखा। अपने व्यक्तित्व में भीड़ का भाव नहीं आने दिया। मैंने अब तक दो हिंदी लेखकों में ही आभिजात्य रूप देखा। इनमें एक अ™ोय थे, और दूसरे रेणु। अ™ोय कुलीन परिवार में जन्मे थे। उनके पिता भारतीय पुरातत्व विभाग के निदेशक थे। लेकिन निहायत पिछड़े हुए गांव के पिछड़े परिवार में जन्मा और पला-बढ़ा व्यक्ति रेणु का व्यक्तित्व  इतना परिष्कृत कैसे हुआ?
मैं बार-बार सोचता हूं।  रेणु जिन अवयवों से निर्मिंत थे, वे देशज थे, लेकिन उनके व्यक्तित्व में ऐसी विशिष्टता थी जो उन्हें औरों से अलग करती थी। इसीलिए व्यक्तित्व के स्तर पर उनकी तुलना केवल अ™ोय से ही करने की बात मैंने की है। उनके पास आप वाचाल नहीं हो सकते थे। उनकी चुप्पी आपको चुप करा देती। हालांकि वह अकेले होना पसंद नहीं करते थे। अपने आखिरी समय में जब पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल में भर्ती थे तब  उन्होंने सामान्य वार्ड में रहना पसंद किया। इस वार्ड में हफ्तों रहे। एक कोने में चुपचाप। अ™ोय से लेकर बिल्कुल नये लेखक तक उनसे यहीं मिलने आते थे। उनके पास भीड़ हमेशा बनी रही। लेकिन भीड़ के वह हिस्सा नहीं हुए। खास बने रहे। सबके आकषर्ण का केंद्र बने रहे। न भीड़ के लिए लिखा, न भीड़ के लिए जिया; लेकिन कभी भीड़ से बचने की कोशिश भी नहीं की। भीड़ को नागरिक बनाने की कोशिश में ही लेखक बन गए। इस रूप में वह साहित्य के नेहरू थे। संभव है  कि आज के नेहरू-विरोधी समय में रेणु जी के लिए मेरी इस टिप्पणी का कुछ अलग अर्थ लगाया जाए। लेकिन यही सच है।

प्रेम कुमार मणि


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment