दिल्ली दंगे : ’84 और ‘20 का फर्क

Last Updated 04 Mar 2020 02:56:22 AM IST

दिल्ली में खूनी दंगे थम तो गए हैं पर इस शहर में अमन और भाईचारे की बहाली दूर की संभावना है।


दिल्ली दंगे : ’84 और ‘20 का फर्क

फिलहाल, दंगों के लिए किसी व्यक्ति या समूह को दोष देने से बात नहीं बनेगी। दंगों को उकसाने और करवाने वालों को देर-सवेर दंड मिलेगा ही पर 2020 के सांप्रदायिक दंगों  ने देश को दिल्ली की बेहद भयानक सच्चाई से रूबरू  अवश्य करवा दिया है। लगभग तीन दिनों तक दिल्ली जलती रही, दिल्ली वाले मरते रहे, पर दंगों को रुकवाने के लिए ना तो समाज आगे आया और ना कोई सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिंक नेता ही दंगाग्रस्त इलाकों में दिखाई दिया। अपने को प्रगतिशील और सेक्युलर कहने वाली बिरादरी भी सोशल मीडिया तक ही सिमट के रह गई। वे हमेशा की तरह से मोदी सरकार पर तंज कसती रही लेकिन जाफराबाद, शिव विहार, अशोक नगर, यमुना विहार, मौजपुर जैसे दंगों से बर्बाद हुए इलाकों में जाने की जरूरत नहीं समझी।

यकीन मानिए कि यह दिल्ली का चरित्र नहीं था। दिल्ली ने 2020 से पहले 1947 और 1984 में भीषण दंगे देखे थे। देश के बंटवारे के बाद 1947 में दिल्ली के बहुत से इलाकों में दंगे हुए थे। हालांकि तब तक दिल्ली छोटा सा शहर था। अब तो यहां का आबादी दो करोड़ का आंकड़ा पार कर चुकी है। बंटवारे के बाद दंगे रुकवाने के लिए महात्मा गांधी खुद दंगाग्रस्त इलाकों में गए। इसके लिए उन्होंने 13 से 18 जनवरी तक उपवास रखा। तब वे 78 साल के हो चुके थे। उनके उपवास का असर हुआ कि दंगाई शांत हो गए। दिल्ली फिर से अपनी रफ्तार से चलने लगी। इंदिरा गांधी की उनके सुरक्षा कर्मिंयों द्वारा हत्या के बाद भी दिल्ली जल उठी थी। तब कांग्रेस के लफंगों ने अकेले दिल्ली में सिखों को मौत के घाट उतारा था। देखा जाए तो उसे सांप्रयादिक दंगा कहना भूल होगा। उन दंगाइयों को कदम-कदम पर अटल बिहारी वाजपेयी, चंद्रशेखर, कुलदीप नैयर, ले. ज. जी.के. अरोड़ा, लेखक महीप सिंह समेत सैकड़ों छात्रों, राजनीतिक तथा मानवाधिकार कार्यकर्ताओं आदि से टक्कर लेनी पड़ी थी।
दरअसल, अटली जी ने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजधानी में भड़के सिख विरोधी दंगों के समय अलग रूप देखा था। वे तब दिल्ली प्रेस क्लब के लगभग सामने स्थित 6 रायसीना रोड के बंगले में रहते थे। राजधानी जल रही थी। मौत का नंगा नाच खेला जा रहा था, मानवता मर रही थी। अटल जी ने 1 नवम्बर,1984 को सुबह दसेक बजे अपने बंगले के गेट से बाहर का भयावह मंजर देखा। उनके घर के सामने स्थित टैक्सी स्टैंड पर काम करने वाले सिख ड्राइवरों पर हल्ला बोलने के लिए गुंडे-मवालियों की भीड़ एकत्र थी। वे तुरंत  बंगले से अकेले ही निकल कर टैक्सी स्टैंड पर पहुंच गए। उनके वहां पर पहुंचते ही हत्याएं करने के इरादे से आई भीड़ तितर-बितर होने लगी। भीड़ ने अटल जी को तुरंत पहचान लिया था। उन्होंने भीड़ को खरी-खरी सुनाई। मजाल थी कि उनके सामने कोई आंखें ऊपर कर देख लेता। अटल जी चंदेक पल विलंब से आते तो काम खत्म हो चुका होता। ड्राइवरों और टैक्सियों को जला दिया गया होता।
खैर, तब दिल्ली में दंगों के थमने के बाद जवाहरलाल नेहरू यूनिर्वसटिी (जेएनयू) और दिल्ली यूनिर्वसटिी के छात्र दंगों में मारे गए या घायल लोगों के पुनर्वास के काम में जुट गए थे। अब 36 सालों बाद उसी जेएनयू के छात्र संघ ने दंगा प्रभावितों से कहा है कि वे उन्हें यूनिर्वसटिी में शरण देने को लिए तैयार हैं। ऐसी पेशकश का क्या मतलब है? आपको किसी की मदद करनी है तो आप उनके पास जाइए। उन्हें अपने यूनिर्वसटिी कैम्पस में कैसे बुला सकते हैं? यह अधिकार आपको किसने दिया? मतलब साफ है कि आपको तो हर जगह सियासत करनी है। आपको लाशों पर सियासत करने में शर्म नहीं आती। दंगे रोक पाने में नाकामयाब रहने के लिए बहुत से कथित ज्ञानी दिल्ली पुलिस को भी आड़े हाथों ले रहे हैं। पर क्या उन्हें मालूम है कि दो करोड़ की आबादी वाले शहर में कुल जमा पुलिस कर्मिंयों की तादाद एक लाख भी नहीं है? काफी संख्या में पुलिस वाले वीआईपी ड्यूटी भी कर रहे होते हैं। उन्हें भी साप्ताहिक विश्राम लेना होता है। क्या उनका परिवार नहीं है? दिल्ली पुलिस के जवान रतन लाल को दंगाइयों ने मार डाला। फिर भी कुछ चिर असंतुष्ट ब्लेमगेम में बिजी हैं। अपने या समाज से नहीं पूछ रहे कि दंगाइयों से लोहा लेने को तैयार क्यों नहीं हुए?
कपिल मिश्र को दंगों के लिए दोषी कहने वाले गिरेबान में झांके। अपने से सवाल करें कि उन्होंने जाफराबाद में एक और शाहीन बाग बनाने की कोशिशों का विरोध क्यों नहीं किया? आपको सरकार के किसी फैसले का विरोध करने का अधिकार है। पर क्या हर जगह धरने पर बैठ जाएंगे ? सड़क जाम करने लगेंगे? जब धरना देने के लिए जंतर-मंतर तय जगह है, तब आप अपने स्तर पर फैसला कैसे ले सकते हैं। बेशक, दिल्ली के 2020 के दंगे बहुत से सवाल छोड़ गए हैं। पर एक बात का जवाब सबको मिल गया है कि अब दिल्ली में  दंगों से बचाने वाला कोई फरिश्ता नहीं है।

विवेक शुक्ल


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