तालिबान-अमेरिका समझौता : सफलता सवालों के घेरे में

Last Updated 03 Mar 2020 06:12:11 AM IST

कतर की राजधानी दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच संपन्न शांति समझौते से किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।


तालिबान-अमेरिका समझौता : सफलता सवालों के घेरे में

करीब 18 महीने से अमेरिका समझौते के लिए ही बातचीत कर रहा था तथा अंतिम सहमति के बाद हस्ताक्षर होने शेष थे। हम चाहें न चाहें तालिबान से समझौता हो गया तो इसका बहिष्कार करना या किसी तरह इससे बिल्कुल अलग विचार रखना भारतीय हितों के प्रतिकूल होता। इसलिए दोहा में भारत के राजदूत पी. कुमारन की वहां उपस्थिति भारतीय विदेश नीति का नई परिस्थिति से सामंजस्य बिठाने का कदम है। विदेश सचिव हषर्वर्धन श्रृंखला प्रधानमंत्री का पत्र लेकर अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अरशद गनी के पास गए। तो भारत ने परिस्थितियां बदलने की संभावनाओं के अनुरूप अपनी नीतियों में बदलाव करना शुरू कर दिया है।
वास्तव में यह कोई सामान्य समझौता नहीं है। जिस तालिबान को साढ़े 18 वर्ष पहले अमेरिका ने नेस्तनाबूद करने की कोशिश की, जिसके साथ संघर्ष करता रहा, नाटो सहित 38 देशों की गठबंधन सेनाएं इतने सालों से उससे संघर्ष तथा अफगानिस्तान में तालिबान सहित जेहादी इस्लामवादियों से परे लोकतंत्र, प्रशासन तथा आधुनिक समय के अनुरूप सुरक्षा व्यवस्था की स्थापना सहित पुनर्निर्माण के लक्ष्य से वहां कार्यरत रहीं, वही आज समझौते को तैयार हुआ है तो असाधारण स्थिति है। साढ़े अठारह वर्ष पूर्व लौटें तो इस स्थिति की कल्पना कठिन थी।

11 सितम्बर, 2001 को अमेरिका पर सबसे बड़े आतंकवादी हमले के बाद अमेरिका ने तालिबान के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया था। उसका लक्ष्य ओसामा बिन लादेन का ही अंत नहीं, तालिबान के सारे नेताओं का खात्मा था। उसने उसके शासन को उखाड़ भी फेंका। उसके 2352 सैनिक संघर्ष में मारे जा चुके हैं। 2019 तक युद्ध में एक लाख से ज्यादा अफगान सैनिक, 34 हजार नागरिक मारे जा चुके हैं। अमेरिकी आंकड़ों के अनुसार 2.4 खरब डॉलर यानी करीब 541 लाख करोड़ रुपये आधिकारिक रूप से युद्ध में अमेरिका खर्च कर चुका है। उसी तालिबान को मान्यता देने का इतना ही मतलब है कि अमेरिका येन-केन-प्रकारेण वहां से निकलने की फिराक में है। सामान्य तर्क है कि ट्रंप ने 2016 के चुनाव में अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी का वादा किया था और दूसरी बार चुनाव में उतरने से पहले ऐसा करके अपना समर्थन आधार कायम रखना चाहते हैं। समझौते के अनुसार अमेरिका और सहयोगी 14 महीने के भीतर अपने सैनिकों को वापस बुला लेंगे। तत्काल वह अपनी सैनिको की संख्या 13 हजार से घटाकर 8600 करने पर प्रतिबद्ध है। तालिबान हथियार छोड़ दे इसकी कल्पना कठिन है। उसे अल कायदा जैसे आतंकवादी संगठनों का साथ  छोड़ना होगा। तालिबान कह रहा है कि अल कायदा अफगानिस्तान में है ही नहीं।
अमेरिका को समझना है कि क्या वाकई यह कह देने से कि अल कायदा अफगानिस्तान में नहीं है वह संतुष्ट है? अमेरिका ने इसे अंतरराष्ट्रीय चरित्र देने के लिए दोहा में हस्ताक्षर करते समय लगभग 30 देशों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों के विदेश मंत्री और प्रतिनिधियों की उपस्थिति सुनिश्चित की किंतु ये देश केवल उस समझौते के गवाह हैं, जिनमें इनकी न कोई भूमिका थी, न प्रभाव। अमेरिका के एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी का बयान आया है कि सैनिकों की वापसी पर काम करने का अमेरिकी इरादा समझौते में व्यक्त प्रतिबद्धता के मुताबिक तालिबान की कार्रवाई से जुड़ा है। इसमें व्यापक आतंकवाद निरोधक प्रतिबद्धताएं भी शामिल हैं क्योंकि यह अमेरिका की प्राथमिक चिंता है..। माइक पोम्पियो ने भी कहा कि तालिबान से समझौता तभी कारगर साबित होगा जब तालिबान पूरी तरह से शांति कायम करने की दिशा में काम करेगा। तात्कालिक रूप से देखा जाए तो भारत के लिहाज से कतर समझौते में कुछ नहीं है। भारत का कहना है कि अफगानिस्तान में शांति और सुलह की हर प्रक्रिया में सहभागी है। तालिबान के प्रतिनिधि अब्दुल बरादर ने समझौते में मदद के लिए पाकिस्तान का नाम तो लिया लेकिन भारत का नहीं। बरादर ने अपने संबोधन में जैसी भाषा का प्रयोग किया वह तालिबान से बिल्कुल भी अलग नहीं थी। बरादर बार-बार इस्लामी व्यवस्था की बात कर रहे थे। अफगानिस्तान के विकास के लिए भारत अरबों रु पये खर्च कर चुका है। इस वक्त भी कई विकास कार्य चल रहे हैं। भारत को आशंका है कि तालिबान के हाथ में सत्ता आने के बाद वह इन विकास कार्यों को बंद करा सकता है। समझौते में तालिबान के विचारों को बदलने के लिए कोई बात है ही नहीं।
तालिबान का समझौते के पीछे मुख्य मकसद अफगानिस्तान में इस्लामी सोच की दोबारा सरकार कायम करना है। पाकिस्तान चाहता है कि अफगानिस्तान में तालिबान की हुकूमत कायम हो। पहले जब अफगानिस्तान में तालिबान ने सरकार बनाई थी, तब वहां परोक्ष रूप से पाकिस्तान का ही शासन था। फिर वैसा होता है तो निश्चित रूप से भारत के लिए कठिनाई पैदा होगी। तालिबान का विचार न वर्तमान शासन से मिलता है और न अन्य कई राजनीतिक समूहों से। वे इस्लामिक व्यवस्था के हिमायती हैं। इसलिए इसका किसी सर्वसम्मत परिणाम पर पहुंचना कठिन होगा। तब? हो सकता है कि अफगानिस्तान भयानक गृह युद्ध में उलझ जाए।
अफगानिस्तान का दुर्भाग्य है कि पिछले चार दशकों से अशांति और अस्थिरता का शिकार है। तालिबान ने 1996 में पाकिस्तान की मदद से काबुल पर कब्जा जमाकर शासन करना शुरू किया। तालिबान का शासन कैसे रहा है यह बताने की आवश्यकता नहीं। अल कायदा के संस्थापक ओसामा बिन लादेन ने जिस इस्लामिक साम्राज्य का सपना दिखाया उसका एकमात्र साकार रूप वहीं था। तालिबान ने देश को जर्जर कर दिया। अफगानिस्तान जेहादी आतंकियों का केंद्र बन गया। अभी वहां राजनीति ही गहरे विवादों में है। अफगानिस्तान के चुनाव आयोग ने अशरफ गनी को सितम्बर में हुए चुनाव में विजीत घोषित कर दिया लेकिन उनके प्रतिद्वंद्वी अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने परिणाम को स्वीकार नहीं किया। इस मतभेद का लाभ तालिबान उठा सकते हैं। फिर क्या होगा, केवल कल्पना की जा सकती है। जो भी हो यह समझौता अमेरिका की पराजय का ही द्योतक है। एक आतंकवादी समूह से संघर्ष शुरू कर आपने फिर उसे ही अफगानिस्तान सौंपने का वैध आधार बना दिया है जो वहां कट्टर इस्लामी शासन कायम करना चाहता है। वह भी केवल अपना पल्ला झाड़ने के लिए। यह नीति दुनिया के हित में नहीं है।

अवधेश कुमार


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