बीज विधेयक : कंपनी नहीं, किसान हित में हो
बीजों की गुणवत्ता सुनिश्चित करने को लेकर प्रस्तावित बीज विधेयक, 2019 शीतकालीन सत्र के दौरान खूब चर्चा में रहा लेकिन पेश नहीं हो सका।
बीज विधेयक : कंपनी नहीं, किसान हित में हो |
इससे कृषकों एवं कृषि विशेषज्ञों को निराशा हुई। हालांकि इस विधेयक को लेकर चिंताएं बरकरार हैं कि विधेयक किसानों के लिए कल्याणकारी होगा या बीज कंपनियों के लिए? इससे पहले 2004 और 2010 में भी इसकी प्रस्तावना की गई थी लेकिन जोरदार विरोध के कारण यह मामला अब तक ठंडा पड़ा रहा।
खेतीबारी में उपयुक्त ‘बीज’ ही पैदावार की दशा और दिशा तय करता है। भूमि के बाद बीज ही सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व है जो पैदावार की गुणवत्ता और मात्रा तय करता है। गुणवत्ताहीन बीजों के कारण फसल चौपट होने तथा किसानों को भारी आर्थिक नुकसान से बचाने की दिशा में विधेयक आवश्यक है, और हितकारी भी। लिहाजा, प्रस्तावित बीज विधेयक, 2019 बीजों की गुणवत्ता के नियम तय करने, सर्वश्रेष्ठ बीजों का आयात-निर्यात, उत्पादन तथा आपूर्ति को सरल बनाने के उद्देश्य से बनाया गया है। इसके लिए बीज अधिनियम, 1966 को प्रतिस्थापित कर बीजों के एकरूप प्रमाणन को अनिवार्य बनाने की जरूरत होगी। विधेयक में बीजों के उत्पादन, प्रमाणन तथा बारकोडिंग के जरिए गैर-प्रामाणिक बीजों से मुक्ति पाने का लक्ष्य रखा गया है। कृषि मंत्रालय के अनुसार विधेयक से कृषि उत्पादकता में 25 फीसदी तक का इजाफा संभव है।
महत्त्वपूर्ण है कि देश में बिकने वाले कुल बीजों का आधे से अधिक हिस्सा प्रामाणिक नहीं होता है। आंकड़ों पर गौर करें तो सिर्फ 45 फीसदी बीज भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद से प्रमाणित होते हैं। शेष बीज निजी कंपनियों की बाजार नीति के तहत तथा गैर-प्रामाणिक रूप से बेचे जाते हैं। प्रस्तावित विधेयक में बीजों की अनुवांशिकी की सही जानकारी न देने, गलत ब्रांड बताने तथा अपंजीकृत और नकली बीजों के भंडारण एवं आपूर्ति पर एक वर्ष की सजा तथा पांच लाख रुपये के जुर्माने का भी प्रावधान है। मौजूदा कानून के तहत धोखाधड़ी करने वालों के खिलाफ 500 से लेकर 5000 रुपये तक के जुर्माने का ही प्रावधान है। देश में हरित क्रांति के तुरंत बाद वर्ष 1966 में बीजों और इनकी गुणवत्ता से जुड़े मामलों को नियंत्रित करने वाला पहला अधिनियम बनाया गया जिसके तहत अधिसूचित गुणवत्ता मापदंडों के अनुसार बीजों की लेबलिंग की गई। बीजों की गुणवत्ता में कमी मिलने पर विक्रेता के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई का प्रावधान किया गया। इस अधिनियम में खामी रही कि बीजों की बिक्री से पहले लाईसेंस तथा ‘वेराइटल रजिस्ट्रेशन’ की व्यवस्था नहीं की गई थी जो प्रस्तावित विधेयक में शामिल की गई है।
बीजों की गुणवत्ता विनियमन की दृष्टि से देखें तो प्रस्तावित विधेयक और पुराने कानून में ज्यादा अंतर नहीं है। नये बिल में बीज उत्पादकों एवं प्रक्रमकों का अलग-अलग पंजीकरण और लाईसेंस का प्रावधान किया गया है। मौजूदा कानून की तरह नई प्रस्तावना में मुआवजे के लिए कोई प्रावधान नहीं किया गया है। बीजों की विफलता के बाद मुआवजा संबंधी विषय उपभोक्ता सुरक्षा अधिनियम के अधीन ही रखा गया है। सच है कि पिछले चार दशकों के दौरान निजी बीज कंपनियों को प्रोत्साहित किया गया जिसमें कई बहुराष्ट्ीय कंपनियां भी शामिल रहीं। इनके द्वारा 50 फीसदी से अधिक बीजों का उत्पादन सुनिश्चित किया जाता है।
इन कंपनियों द्वारा बीज कानून को लचीला बनाने, कीमतों को अविनियमित करने, ‘जर्मप्लाज्म’ के नि:शुल्क आयात-निर्यात, बीजों को स्वयं से प्रमाणित करने तथा किसानों द्वारा स्वयं के बीज इस्तेमाल करने पर रोक लगाने आदि जैसी मांगें सामान्य रही हैं। प्रस्तावित बिल को लेकर कृषि विशेषज्ञों की चिंताएं भी गौरतलब हैं। उनका मानना है कि बीज प्रतिस्थापन दर में बढ़ोतरी से किसानों का नहीं, बल्कि निजी कंपनियों का मुनाफा बढ़ेगा। साथ ही नये विधेयक में कई प्रावधान ‘पीपीवीएफआर एक्ट, 2001’ के खिलाफ हैं, जो कृषि हित में नहीं है। इस एक्ट के तहत बीजों की आपूर्ति तथा कीमत सरकारी प्रबंधन का विषय है लेकिन नये बिल में ऐसे किसी तंत्र का प्रावधान नहीं किया गया है जिससे कि बीजों की कीमत व उचित आपूर्ति नियंत्रित किया जा सके। इस बावत चिंता है कि इनकी कीमतें आसमान छू सकती हैं। आपूर्ति प्रभावित होने की संभावना भी बनी रहेगी। पीपीवीएफआर एक्ट, 2001 में खराब गुणवत्ता के बीज से नुकसान की स्थिति में मुआवजे के लिए दावा करने का प्रावधान है, लेकिन प्रस्तावित बिल में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, किसानों को इसके लिए उपभोक्ता सुरक्षा कानून के तहत न्याय की गुहार लगानी होगी। चिंता यह भी है कि पंजीकरण की व्यवस्था अनिवार्य कर दिए जाने से सीमांत व छोटे किसान बीज व्यापार से दूर न हो जाएं। आशंका यह भी है कि कृषि संबंधी शोध कार्यों पर भी कंपनियों व पेटेंटधारकों का आधिपत्य स्थापित न हो जाए। अब तक के अनुभवों से स्पष्ट है कि बड़ी कंपनियों की धुसपैठ और धन बल के सहारे बाजार में उनका एकाधिकार स्थापित हो चुका है। एक तरफ जहां किसानों के पैरोकार न के बराबर हैं, वहीं बहुराष्ट्रीय बीज एवं कीटनाशक कंपनियों की उच्चस्तरीय लॉबिंग सरकार तक पर दबाव बनाने में कामयाब हो जाती हैं। उदाहरण देखें तो जीएम बीजों का व्यापार भारत में इतना मजबूत हो चुका है कि एचटीबीटी कपास की बुआई पर सरकारी प्रतिबंध के बावजूद कई राज्यों में धड़ल्ले से इसकी खेती जारी है। कई राज्यों में तो 20 से 25 फीसदी तक की अवैध बुआई भी हुई है। किसानों को निरुत्साहित भी किया गया। जरूरत है कि इन कंपनियों के स्थानीय एजेंटों पर नकेल कसी जाए। जहां तक नये बीज विधेयक के जरिए दशकों पुराने कानून में संशोधन का सवाल है, इसका स्वागत होना चाहिए। चूंकि 1966 के बाद देश की कृषि व्यवस्था में काफी बदलाव देखा गया है, इस दौरान कृषि तकनीक एवं प्रौद्योगिकी की भूमिका काफी बढ़ी, इसलिए नये बीज कानून का प्रभाव में आना अनिवार्य हो गया है। वर्तमान सरकार किसानों की आमदनी दोगुनी करने को प्रतिबद्ध है। प्रधान मंत्री किसान सम्मान निधि योजना के तहत लगभग साढ़े आठ करोड़ किसानों को सीधा लाभ पहुंचाने, प्रधान मंत्री किसान मान-धन योजना के तहत 60 वर्ष की उम्र के बाद प्रति माह 3 हजार रुपये पेंशन की व्यवस्था आदि पहल उत्साहवर्धक हैं, लेकिन ग्रामीण संरचना को आर्थिक रूप से मजबूत करने के लिए ठोस नीति व सख्त क्रियान्वयन अपेक्षित है। प्रति फसल वर्ष एमएसपी निर्धारित होता है लेकिन किसानों को नहीं मिल पाता। कृषि व कृषकों की और अनदेखी न हो इसके लिए नीति निर्माण में उनकी भागीदारी सुनिश्चित किया जाए। चूंकि ‘बीज’ खेती-किसानी व ग्रामीण अर्थव्यवथा का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा है, इससे जुड़ा कोई भी कानून कृषि व कृषकों की रक्षा करने वाला होना चाहिए न कि बीज कंपनियों की रक्षा करने वाला।
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