भाजपा : खतरे की घंटी
झारखंड के विधानसभा चुनाव के नतीजे दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ हैं : भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) एक और राज्य में सत्ता खो बैठी है।
भाजपा : खतरे की घंटी |
बीते पांच साल में यह पांचवा राज्य जो भाजपा विपक्ष के हाथों गंवा बैठी है। झारखंड से पूर्व वह मध्य प्रेदश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और महाराष्ट्र में उसने शिकस्त खाई। इन पांचों में ज्यादा संख्या उन राज्यों की है, जहां कांग्रेस ने उसे पटकनी दी। हालांकि हरियाणा में भी उसने गच्चा खाया लेकिन ओमप्रकाश चौटाला के पुत्र (दुष्यंत चौटाला) की उपमुख्यमंत्री बनने की महत्त्वाकांक्षा तथा अपने पिता को जेल से पैरोल पर छुड़ाने की मंशा के चलते वह किसी तरह सरकार बनाने में सफल हो सकी।
सोमवार को दोपहर तक रुझान जतला रहे थे कि भाजपा का झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम), कांग्रेस तथा राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के चुनाव-पूर्व गठबंन कड़ा मुकाबला है। इससे भगवा पार्टी की उम्मीद कायम थी कि वह दौड़ से बाहर नहीं हुई है। दरअसल, सबसे बड़ी एकल पार्टी के रूप में उसकी बढ़त ने उसे उत्साह से लबरेज कर रखा था। उसे लग रहा था कि केंद्र में सत्तारूढ़ होने के कारण उसे सरकार गठित करने का न्योता राज्यपाल की तरफ से मिल सकता है। तत्पश्चात वह बहुमत के आंकड़े 41 के लिए कोशिश कर सकती है। ऐसा ही अभी कुछ हफ्ते पहले महाराष्ट्र में भी तो हुआ था। भाजपा नेताओं के आशावाद का आधार था कि दोपहर तक रुझान ही मिले थे, वास्तविक नतीजे नहीं।
उन्हें लग रहा था कि 30 के आसपास सीटें उन्हें मिल सकती हैं। भाजपा छोटे दलों से टेलीफोन पर संपर्क साध चुकी थी। इसलिए दोपहर तक भाजपा ने 30 से ज्यादा सीटें जीत लेने का न तो उम्मीद खोई थी और यह उम्मीद भी पाल चुकी थी कि वह कांग्रेस को उसी की भाषा में जवाब देगी जैसा कि कांग्रेस ने कर्नाटक और तत्पश्चात महाराष्ट्र में किया था। भाजपा नेता एवं केंद्रीय मंत्री अजरुन मुंडा ने बकायदा संकेत दिया था कि भाजपा ने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा है। मुंडा ने कहा कि जरूरी हुआ तो भाजपा सुदेश महतो-नीत ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) और बाबूलाल मरांडी-नीत झारखंड विकास मोर्चा (जेवीएम) से समर्थन ले सकती है। लेकिन दिन के आगे बढ़ने के साथ ही भाजपा सबसे बड़ी एकल पार्टी के रूप में अपनी बढ़त को खो बैठी। उसे दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में संतोष करना पड़ा। जेएमएम सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। इसलिए शाम होते-होते महाराष्ट्र की भांति गवर्नर की मदद से सत्ता पर काबिज बने रहने का उसका मंसूबा पूरा न हो सका। मुख्यमंत्री रघुवर दास अपनी सीट तक न बचा सके। जमशेदपुर-पूर्व सीट, जो उनका गढ़ कही जाती है और जहां से वह 1995 से जीतते रहे थे, पर वह अपनी पार्टी के ही बागी सरयू राय के हाथों मात खा बैठे। रोचक बात यह है कि अभी तक झारखंड में कोई भी मुख्यमंत्री लगातार चुनाव नहीं जीता है। झारखंड के चुनावी नतीजे भाजपा को छत्तीसगढ़ में मिली शिकस्त के घाव हरे करने वाले भी हैं।
छत्तीसगढ़ में जिस तरह रमन सिंह ने लोगों से स्वयं को अलग-थलग कर लिया था, उसी तरह रघुवर दास भी न केवल लोगों, बल्कि अपनी पार्टी के राज्यस्तरीय नेताओं और कार्यकर्ताओं तक से कट गए थे। उनमें सहनशीलता की कमी और तुनकमिजाजी उन पर भारी पड़ी। वह केवल नरेन्द्र मोदी और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के अलावा किसी की नहीं सुनते थे। झारखंड में भाजपा की पराजय का राष्ट्रीय पटल पर निश्चित ही असर पड़ेगा। सबसे पहला तो यह कि इस हार से मोदी-शाह के हालिया कदम-सिटीजन्स अमेंडमेंट एक्ट (एसीसी) और नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजनशिप (एनआरसी)-पर बड़ा प्रश्नचिह्न लग जाएगा। इस बात को शिवसेना, जो भाजपा की हाल तक सहयोगी रही है, की इस कड़ी टिप्पणी से समझा जा सकता है : झारखंड के चुनावी नतीजों से पता चलता है कि लोग अमित शाह-नीत पार्टी के एनआरसी जैसे संवेदनशील मुद्दों आधारित राजनीति को अब पसंद नहीं कर रहे। शिवसेना की प्रवक्ता मनीषा कायंडे ने तो यहां तक कह डाला है कि लोग अमित शाह-नीत पार्टी पर विश्वास करते भी हैं कि नहीं।
वह कहती हैं,’ उन्होंने (भाजपा) ने लोगों से विकास की राजनीति करने का वादा किया था, लेकिन अब वे वास्तविक मुद्दों से लोगों का ध्यान हटाने के लिए उन्हें संवेदनशील मुद्दों में उलझाने में जुटे हैं..लगता है कि एनआरसी जैसे मुद्दे उठाने के कारण ही उन्हें शिकस्त मिली है।’ शिवसेना के इस जुबानी हमले से महत्त्वपूर्ण सवाल उठता है कि क्या सीएए और एनआरसी ने भाजपा उखाड़ फेंका है? ऐसा हो सकता है। इसके अलावा, भाजपा अपने सहयोगी दलों से भी अलग-थलग पड़ चुकी है। हालांकि कुछ दिन पहले ही वह अपने सहयोगी दलों के बल पर राज्य सभा (जहां वह अल्पमत में है) में सीएबी को पारित करा सकी। झारखंड में पार्टी को मिली शिकस्त के बाद अब ये सहयोगी सीएए/एनआरसी जैसे मुद्दों पर नये सिरे से विचार कर सकते हैं। यही कारण है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, बिहार में सत्तारूढ़ जनता दल (युनाइटेड) के नेता, सीएए तथा एनआरसी जैसे मुद्दों पर अपनी सहयोगी भाजपा के साथ दूरी बनानी शुरू कर दी है। एक के एक पराजय ने मोदी-शाह की टीम के लिए भी खतरे की घंटी बजा दी है। झारखंड में इन दोनों ने भाजपा की नैया पार कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
प्रधानमंत्री मोदी ने चुनाव प्रचार के अंतिम दिन नौ रैलियों को संबोधित किया था। अमित शाह कई दिनों तक झारखंड में ही डेरा जमाए रहे ताकि भाजपा की जीत की संभवाना को पुख्ता किया जा सके। अब जबकि भाजपा के लिए नतीजे प्रतिकूल मिले हैं, मोदी और शाह को कुछ समझ नहीं आ रहा होगा। सवाल यह भी पैदा होता है कि क्या मोदी शाह को सरकार से हटा कर पूरी तरह पार्टी में वापस भेज देंगे ताकि वह पूरे समय पार्टी के कार्यकलाप पर ध्यान दे सकें। अभी केंद्रीय गृह मंत्री रहते में वह शायद ऐसा नहीं कर पा रहें होंगे। झारखंड में पराजय के बाद अब दिल्ली और बिहार में होने वाले असेंबली चुनावों में भाजपा के सामने चुनौती और कड़ी हो जाएगी। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी आम आदमी पार्टी तो बल्ले बल्ले हो रहे होंगे। मोदी-शाह के बाद नीतीश कुमार आज भारत में तीसरे सबसे ज्यादा चिंतित व्यक्ति होंगे। झारखंड में लोगों के बदले मूड की कड़ी चुनौती अब उनका भी सामना होना निश्चित है।
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