मीडिया : नया अस्तित्ववादी डर
-‘अगर चैनल दिखाना बंद करें तो ये आंदोलन तुरंत खत्म हो जाए’!
मीडिया : नया अस्तित्ववादी डर |
-‘विपक्ष इसे उकसा रहा है। उसके नेता युवाओं को मिसगाइड कर रहे हैं। खबर चैनल्स इनको लाइव दिखा कर उनके हौसले बढ़ा रहे हैं। अगर टीवी दिखाना बंद कर दे तो ये दो मिनट न चले।
ऐसी ही बातें हमारे एक मित्र कह रहे थे कि यह सब विपक्ष और मीडिया का किया धरा है। विपक्ष करे सो करे, मीडिया क्यों इनको चढ़ाने में लगा है? अगर दिखाना बंद कर दे तो ये सब कितनी देर चलेगा? जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्र या अन्य युवा मीडिया से एक सी बातें कहते रहे कि ये ‘नागरिकता कानून’ मुसलमानों को बाहर करना चाहता है। असम में पांच लाख मुसलमान अलग कर कैंपों में डाल दिए गए हैं। हम हमारे बाप, दादे-परदादे यही पले-बढ़े और ये हमको निकाल देना चाहते हैं। हम क्यों बाहर जाएं? वे मानते हैं कि ‘नागरिकता कानून’ और ‘एनआरसी’ एक दूसरे के पूरक हैं, और ये सब कानून उनको डराने, ‘आउट’ करने या ‘गुलाम’ बनाने का षड्यंत्र है।
इस डर के पीछे पिछले पांच बरसों के संचित डर हैं। यह डर ऐसी अनेक प्रकट-अप्रकट हिंसा और दमनों से गहराते गए हैं, और अब नागरिकता कानून के बनने और एनआरसी की आशंकाओं से आजिज आकर सामूहिक गुस्से के रूप में प्रकट हो रहे हैं। जब कोई कहता है कि गृह मंत्री ने कहा तो है कि जो देश के नागरिक हैं, उनको डरने की जरूरत नहीं तो वे तुरंत कहते हैं कि इनके कहे का कोई भरोसा नहीं। ये लोग बात बदल देते हैं। लिख के दें तो मानें..। यह एक पॉपलुर युवा विमर्श है, जो सिर्फ मुसलमानों का नहीं है। एक नये किस्म की युवा सिविल सोसाइटी स्वत:स्फूर्त तरीके से आकार ले रही है, जिसका कोई एक नेता नहीं है, जिसमें हिंदू, मुसलमान, सिख आदि सभी तरह के युवा इस नित्य सिकोड़े जाते जनतंत्र में अपने और अन्यों के लिए एक न्यूनतम स्वाभिमानी और निडर किस्म के नागरिक स्पेस को चाहते हैं, जिसमें कोई किसी का अपमान न कर सके, कोई निष्कासित कर सके।
यही कारण है कि जामिया से शुरू हुआ प्रतिरोध देखते-देखते देश के लगभग हर हिस्से में फैल जाता है। चैनल उसे फॉलो करते हैं, और साफ होता जाता है कि यह एक नये किस्म का ‘कंपोजिट सिविल युवा’ हैं, जो दंभी सत्ता की संसदीय संवेदनहीनता से क्षुब्ध हेाकर अपनी ‘जन्मजात नागरिकता’ का दावा कर रहा है। आंदोलन कर कह रहा है कि आप संसद में अपने बहुमत से कोई कानून बना लें, लेकिन इस तरह आप पब्लिक का मन नहीं जीत सकते। सत्ता पक्ष इसे विपक्ष का षड्यंत्र मानता है। कुछ इसे मीडिया का बनाया मानते हैं, लेकिन यह अब तक अपरिभाषित क्षोभ है, जो ‘डर के शासन’ से लड़ रहा है। मीडिया का एक हिस्सा बताता है कि यह देश राजनीति का ‘टर्निग पॉइंट’ है, लेकिन अपने बहुमतवाद में मगन सत्ता इसे सिर्फ ‘षड्यंत्र की तरह’ देखती है। बहुत से ‘बहुमतवादी’ इसे मीडिया का बनाया खेल मानते हैं। जिन दिनों सारा मीडिया भक्त बना हुआ हो, क्या तब भी मीडिया ऐसे आंदोलन को ‘बना’ सकता है? जी नहीं। इसे मीडिया नहीं बना रहा, बल्कि वह उसके पीछे-पीछे आ रहा है, उसे कवर कर सिर्फ अपनी वैधता सिद्ध कर रहा है वरना उसकी हमदर्दी इसके साथ नहीं है।
सच तो यह है कि आज का युवा स्वयं एक मीडियम है। यह आंदोलन भी एक विराट मीडियम है। हर युवा के पास थ्री जी-फोर जी स्मार्टफोन्स हैं। वे ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सऐप पर एक दूसरे से ग्रुपों में जुड़े रहते हैं। ये नये किस्म की साइबर पंचायतें हैं, जिनका हर सदस्य अपनी जरा-जरा सी बात की खबर चित्र वीडियो और वॉयसमेल पर देते लेते रहते हैं। यह नया ‘साथीपन’ है, जिसे रोकने के लिए इंटरनेट पर प्रतिबंध लगाया जाता है। यह आंदोलन सोशल मीडिया का बनाया है। ये युवा समाज उनसे नाराज है, जो किसी के दर्द को सुनते ही नहीं। जो हमारी न माने वह ‘देशद्रोही’ ‘राष्ट्रद्रोही’, शिकार को जेल और शिकारी को बेल, नोटबंदी, जीएसटी तीन सौ सत्तर और अब नागरिकता कानून और आसन्न एनआरसी। साफ है कि सिर्फ मुसलमान लाइन में न लगेंगे, बल्कि सभी लगेंगे और अगर सही कागजात न हुए तो आप ‘अनागरिक’। सदियों से चले आते एक ढीले-ढाले ‘इनफॉर्मल’ समाज को एक झटके में ‘फॉर्मल’ बना डालने का हुकुम किसे न हिला देगा?
यह एक खास किस्म का ‘अस्तित्ववादी डर’ है, जिसे अपने बहुमत के दंभ में मगन एक संवेदनहीन सत्ता ने बनाया है, तिस पर वह इसे ‘विपक्ष का षड्यंत्र’ या ‘मीडिया का षड्यंत्र’ मानती है, इससे आश्चर्यजनक और क्या हो सकता है!
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