लैंगिक असमानता : सामाजिक संरचना का नतीजा

Last Updated 20 Dec 2019 04:56:57 AM IST

आने वाले समय में अपने विकास की राह में भारत को जिन बड़ी चुनौतियों का सामना करना है, उनमें से एक है लैंगिक असमानता।


लैंगिक असमानता : सामाजिक संरचना का नतीजा

पारंपरिक कारणों और अपनी सामाजिक संरचना की वजह से स्त्री और पुरुष के बीच की खाई काफी चौड़ी है। आज की तारीख में भारत में महिलाओं की संख्या लगभग 67 करोड़ है। लेकिन 2011 की जनगणना के अनुसार वे देश की आबादी का आधा नहीं, बल्कि 48.5 प्रतिशत हिस्सा ही हैं। हालांकि पूरी दुनिया में महिलाओं की औसत आयु पुरु षों से ज्यादा है। भारत में भी वे पुरु षों की तुलना में ज्यादा दीर्घजीवी हैं।
भारत में महिलाओं की संख्या ज्यादा होनी चाहिए थी, लेकिन आबादी के अनुपात में प्रति हजार पुरुषों पर यहां औसतन 929 महिलाएं ही मौजूद हैं। इसकी वजहें मुख्य रूप से धार्मिंक और सामाजिक हैं। यहां बेटी की तुलना में बेटे के जन्म की कामना ज्यादा रहती है। लोग ऐसा मानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्त्तव्य है कि अपने वंश को वह आगे बढ़ाए। यह वंश बेटे के जन्म से ही आगे बढ़ सकता है, बेटी के जन्म से नहीं। इसके अलावा, एक धार्मिंक विश्वास यह भी है कि मृत्यु के बाद बेटे के ही मुखाग्नि देने से तर्पण होता है। इसलिए भी बेटे का होना जरूरी है। ऐसी पारंपरिक धारणाओं की वजह से प्रतिबंध के बावजूद लोग प्रसव-पूर्व लिंग परीक्षण कराते हैं, और कन्या भ्रूण का गर्भपात करा देते हैं। देश के लिए सबसे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि चोरी- छुपे कन्या भ्रूण हत्या की यह परंपरा हमारे शिक्षित मध्यम वर्ग और अर्ध शहरी कस्बों में ज्यादा प्रचलित है।

अपने देश में शिशु मृत्यु दर दुनिया में सबसे अधिक है। शिशु मृत्यु दर का अर्थ है, जन्म के एक साल से पांच साल के बीच होने वाली मृत्यु। भारत में प्रति वर्ष लगभग 8 लाख शिशु इसी अवधि में समाप्त हो जाते हैं। इसका मुख्य कारण होता है कुपोषण और स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव। आपको यह जान कर शायद अच्छा नहीं लगे कि इसमें भी कन्या शिशु की मृत्यु दर, पुरु ष शिशु दर से 2.5 प्रतिशत ज्यादा है। बहुत सारे लोग अपनी इस मानसिकता के कारण कन्या शिशु के पालन-पोषण पर विशेष ध्यान नहीं देते कि ‘इसे कौन हमारे साथ रहना है, यह तो पराये घर ही जाएगी। बड़ी होने पर इसे यौन अपराधों से बचाना मुश्किल होगा और इज्जत से विदा करने के लिए दहेज में भारी रकम देनी पड़ेगी’, ऐसी सामाजिक व्यवस्था के कारण शुरुआती देखभाल में भी लड़कियों की उपेक्षा की जाती है। इस तरह की सोच और सामाजिक व्यवस्था का चक्रीय प्रभाव पड़ता है। यहां यौन अपराध को प्रतिष्ठा से जोड़ कर देखा जाता है। इसलिए बेटी के सुरक्षित जीवन के लिए उसे जल्दी-से-जल्दी ब्याह दिया जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि प्रति हजार विवाहित महिलाओं में से 13 को उनका किशौर्य समाप्त होने के पहले ही (15 से 19 के बीच) बच्चा हो जाता है। कम उम्र में शादी करने की प्रथा गरीब और कमजोर तबके में ज्यादा देखी जाती है। जाहिर है, ऐसे परिवारों को या तो स्वास्थ्य सेवाओं की जानकारी नहीं होती या उन तक उनकी पहुंच नहीं होती। इसका नतीजा यह होता है कि प्रसव के दौरान ही लाख में से 17.5 महिलाएं दम तोड़ देती हैं। 
देश में हुई अनेक तरह की तरक्की के बावजूद और हर क्षेत्र में महिलाओं के आगे आने के बावजूद सिर्फ 18.2 प्रतिशत नौकरीपेशा महिलाओं को सवैतनिक प्रसूती अवकाश की सुविधा मिल पाती है। यहां 81.4 प्रतिशत महिलाओं को ही प्रसव के समय किसी पेशेवर स्वास्थकर्मी की सेवा उपलब्ध हो पाती है, शेष प्रसव भगवान भरोसे होते हैं। 46.5 प्रतिशत विवाहित महिलाओं की पहुंच किसी भी प्रकार के गर्भ निरोधक तक नहीं हो पाती और इसलिए गर्भ धारण करना उनकी अपनी इच्छा पर निर्भर नहीं करता और 28.8 प्रतिशत महिलाएं यह स्वीकार करती हैं कि उनके अंतरंग पुरु ष साथी ने उनके साथ शारीरिक हिंसा की। इस आंकड़े को देखते समय यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय स्त्रियां अपने पारिवारिक जीवन को बचाए रखने या संकोच के कारण अक्सर इस तरह के मामलों में सचाई बाहर नहीं आने देतीं वरना यह प्रतिशत काफी ऊपर भी जा सकता है। पांच साल की उम्र में जब लड़कियों को स्कूल में दाखिल कराया जाता है, तो यह आशा की जाती है कि वे 12.9 वषों तक पढ़ाई कर सकेंगी, जबकि पुरु ष छात्रों के बारे में यह प्रत्याशा 11.9 वर्ष ही है। लेकिन औसतन 4.7 वर्ष की पढ़ाई के बाद उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ता है क्योंकि नौ-दस की उम्र होते- होते मां-बाप उन्हें बाहर भेजना असुरक्षित महसूस करने लगते हैं, जबकि लड़के औसतन 8.2 वर्ष तक पढ़ाई करने के बाद स्कूल छोड़ते हैं। इस तरह धीरे-धीरे असमानता की यह खाई चौड़ी से और चौड़ी होती जाती है।
देश में पढ़ाई जारी रखने वाली 25 से ऊपर की सिर्फ  39 प्रतिशत महिलाओं को सेकेंड्री या उससे ज्यादा शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिलता है, जबकि इसी वर्ग में पुरु षों का प्रतिशत 63.5 है। विज्ञान, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और मैथ्स जैसे विषयों के जितने भी स्नातक पूरे देश में हैं, उनका 27.7 प्रतिशत हिस्सा ही महिलाओं के पाले में है। सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा में होने वाली गैर-बराबरी के कारण धीरे-धीरे महिलाएं श्रम बाजार और अर्थ उपार्जन के क्षेत्र में भी पीछे छूटने लगती हैं। इसमें दो राय नहीं कि लड़कियों के इस तरह पिछड़ने में उनके परिवारों की भूमिका भी काफी महत्त्वपूर्ण होती है। देश की श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी मात्र 23.6 प्रतिशत है, जबकि पुरु षों की भागीदारी 78.6 प्रतिशत है। 2011 को आधार वर्ष मानें तो प्रति वर्ष प्रति महिला हमारी राष्ट्रीय आय 2625 डॉलर है, जबकि प्रति पुरु ष 10712 डॉलर है क्योंकि सिर्फ 13 प्रतिशत मध्य और उच्च पदों तक महिलाएं पहुंच पाती हैं। शायद इसीलिए संसद में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व सिर्फ 11.7 प्रतिशत है। र्वल्ड इकोनॉमिक फोरम की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में महिलाओं की सेहत और आर्थिक भागीदारी के क्षेत्र में स्थिति पहले से और ज्यादा खराब हुई है।
स्त्री-पुरु ष असमानता पर तैयार इस रिपोर्ट के मुताबिक, भारत पिछले साल के मुकाबले चार पायदान नीचे खिसक कर 112वें स्थान पर पहुंच गया है। भारत का स्थान चीन (106), श्रीलंका (102), नेपाल (101), ब्राजील (92), इंडोनेशिया (85) और बांग्लादेश (50) से भी नीचे है। यह रिपोर्ट बीते मंगलवार को ही जारी हुई है। ध्यान देने की बात यह है कि पिछले हफ्ते जारी यूएनडीपी की रिपोर्ट में भी भारत में स्त्री-पुरु ष असमानता के बढ़ने का संकेत दिया गया है। लैंगिक असमानता सामाजिक गैर-बराबरी की सबसे बड़ा वाहक है। यह लोकतंत्र विरोधी भी है। इसके बढ़ने से सामाजिक विषमताएं तो बढ़ती ही हैं, किसी राष्ट्र की उत्पादकता में भी कमी आती है। इससे उसकी सकल आय दर कम होती है, और विकास अवरुद्ध होता है। आखिर, कोई राष्ट्र अपनी आधी आबादी को पीछे छोड़ कर कैसे आगे बढ़ सकता है?

बाल मुकुंद


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