मीडिया : चैनलीय न्याय

Last Updated 19 Nov 2017 06:19:34 AM IST

अगर मुंबई का केस हो और खाती-पीती मिडिल क्लास का हो और मीडिया हल्ला न करे, यह हो नहीं सकता.


मीडिया : चैनलीय न्याय

अपना मीडिया दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, बेंगलूरू आदि महानगरों के प्रति अतिरिक्त संवेदनशील रहता है. किसी को जरा-सी खरोंच लग जाए तो राष्ट्रीय समस्या बना डालता है. मुंबई में पिछली शाम दो घटनाएं रिपोर्ट हुई. पहली शाहरुख खान और एक एमलसी के बीच पार्किग को लेकर तू-तू, मैं-मैं की खबर ब्रेक होती रही और देखते-देखते सब चैनलों में छा गई. एक तो शाहरुख का मामला यों ही हिट होने वाला मामला और दूसरे एमएलसी का शाहरुख को कोसना सब तरह से आकषर्क आइटम था.

लेकिन शाम होते-होते मीडिया ने मुंबई पुलिस की एक और ‘ज्यादती’ की खबर को बड़ा बना डाला : हुआ यों कि एक कार गलत जगह पार्क कर दी गई. उसमें एक मां अपने सात महीने के बच्चे को दूध पिला रही थी. पुलिस ने केन से गाड़ी को बांध और लटका के ले चली. एक व्यक्ति ने इसका मय-कमेंटरी के वीडियो बनाकर वाइरल कर दिया. मीडिया बेहद नाराज. कहने लगा कि देखो पुलिस की ज्यादती! इस मां और बच्चे को देखो. इस तरह गाड़ी ले जाने से मां और बच्चे दोनों के साथ कुछ भी हो सकता था. उनको चोट लग जाती तो? यह कहानी शाहरुख-एमएलसी की तू-तू, मैं-मैं की कहानी से अधिक आकषर्क थी. इसलिए शाहरुख-एमएलसी की कहानी आउट कर दी गई और मां-बच्चे की कहानी बिग स्टोरी बना दी गई.

चैनल मुंबई की ट्रैफिक पुलिस पर पिल पड़े कि कितनी पत्थर दिल है!जिम्मेदार पुलिस वाले को हटाया जाए. शाम तक उस कांस्टेबल को सस्पेंड कर दिया गया और कहने लगे कि क्या सस्पेंसन काफी है?सर्वत्र यही सीन छाया रहा और पुलिस खलनायक नजर आती रही. लेकिन अगले रोज कहानी बदलने लगी. एक दूसरा वीडियो मैदान में आगया जो ‘पुलिस के कहने पर भी’ कार में बैठी मां के ‘बाहर न आने’ की कहानी पर जोर देता था. पहला वीडियो वाला कहता जा रहा था कि एक मां बच्चे को दूध पिला रही है. तुम इसे कैसे ले जा रहे हो?वह पुलिसवाले का नाम तक जानता था जबकि पुलिसवाले ने अपने नाम की नेमप्लेट नहीं लगा रखी थी यानी कि वीडियो बनाने वाला पुलिस वाले को जानता था तभी उसका नाम ले पा रहा था. कुछ एंकर कहने लगे कि पुलिस को फाइन लगा देना था लेकिन गाड़ी  को उठाकर नहीं ले जाना था. अगर मां बच्चे को कुछ हो जाता तो? इस कहानी का तीसरा संस्करण यह भी हो सकता है कि जब पुलिस ने कहा कि गाड़ी हटा लो या बाहर निकल आओ तो मां को बच्चे के साथ बाहर निकल आना था लेकिन तब मामला पुलिस बरक्स नागरिक का कैसे बनता? मिडिलक्लासी बड़ी गाड़ी वाला नागरिक कानून तोड़े-मरोड़े लेकिन अगर बीच में मां-बच्चे की कहानी आ जाय तो कानून क्या करेगा? इस तरह ‘कानून तोड़नेवाले’ की कहानी की, जगह ‘मां-बच्चे की जान को खतरा था’ की कहानी पर जोर दिया जाने लगा.

जब कई ताकतें टकराती हैं तो कहानियां ‘एब्सडिर्टी’ में फंस जाया करती हैं यही हुआ:राष्ट्रीय महिला आयोग ने कहा कि बच्चे की जान जोखिम में डालने के लिए मां पर केस किया जाना चाहिए. यह माना कि हसबैंड की तबियत खराब थी और वह डॉक्टर के पास गया था, लेकिन अपनी और अपने बच्चे की जान तो कीमती थी. तब भी उस मां ने बाहर आना जरूरी न समझा.

मिडिलक्लास के ऐसे दंभी सीन किसी भी महानगर में देखे जा सकते हैं बड़ी गाड़ी है. गैर पार्किग एरिया में खड़ी कर अंदर किसी को बिठाकर बाबू लोग अपना काम करने चले जाते हैं.‘अंदर लोग बैठे हैं’ यह देख गाड़ी उठाई नहीं जा सकती. इस तरकीब से पार्किग फीस बच जाती है और गाड़ी उठती भी नहीं. बड़ी गाड़ी रखेंगे, लेकिन फीस नहीं देंगे! यह है मिडिलक्लासी ठसक!

केस के हिसाब से तो पुलिसवाला जितना दोषी है,कार वाला और मां कम दोषी नहीं. लेकिन ऐसा कहते ही महिला कमीशन मैदान में आ जाना है, जो कहेगा कि बच्चे को दूध पिलाती मां को इस तरह तंग करना पुलिस का बड़ा अपराध है और यह ‘मिसोजिनिस्टिक’ भी है. इस पर पुलिस एसोसिएशन भी कह सकती है कि बड़े लोग कानून तोड़ते रहते हैं और हम उनको रोकते हैं तो हमें रोका जाता है. अपने चैनल कमजोर के संग हुई ज्यादतियों को पांच मिनट में सौ खबरों के अंतर्गत पांच सैकिंड की एक खबर बनाकर निपटा देते हैं. लेकिन खाते-पीते अंग्रेजी मिडिल क्लास की कहानी हो तो दो-तीन दिन तक जमाते हैं. यह है मीडिया का न्याय!

सुधीश पचौरी


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