परत-दर-परत : आय के पारिवारीकरण का सवाल
हजारों साल पुरानी यह धारणा अभी भी कमजोर नहीं हुई है कि पुरुष का काम कमाना और स्त्री का काम घर संभालना है.
राजकिशोर |
बाएं हाथ का काम नहीं है, जिसका नतीजा है कि पुरुष भी थोड़ा-बहुत घरेलू काम करने लगे हैं, और इसे लेकर पहले की तरह लजाते भी नहीं हैं. पर गैस, बिजली, कुकर, स्टोव आदि आधुनिक सुविधाएं जब नहीं थीं, तब यह जानलेवा तो नहीं, पर जीवनलेवा काम जरूर था. मेरा खयाल है, चूल्हे-चौके ने स्त्रियों का जितना नुकसान किया है, उतना किसी भी और चीज ने नहीं. वह घर-घुसरी हो गई और समाज से उसका संपर्क अफवाहों और फुसफुसाहटों तक सीमित रह गया. यह दुष्ट स्थिति लगभग तीन-चौथाई भारत में अब भी कायम है.
स्त्रियां घर न चलाती होतीं तो क्या पुरुषों को यह सुविधा हासिल होती कि वे अपने को कमाने के काम में लगाए रख सकें? वे खेत देखते या घर. सोनारी-लुहारी करते या दाल-चावल सिधाते? बेशक, जब स्त्रियों को भी कमाने का अवसर मिलता तो घर के भीतर एक लोकतांत्रिक वातावरण बनता. परंतु स्त्रियों ने मन में डर और आंखों में प्रेम के साथ इस अनखरीदे गुलाम जैसी स्थिति को स्वीकार कर लिया तो इसीलिए कि उनके पास गहने तो थे, पर कोई आमदनी नहीं थी. न पिता के यहां, न पति के यहां. श्रमिक वर्ग की स्त्रियों पर उनके पुरु षों का इतना जोर नहीं चलता था, क्योंकि कमाने में उनकी भी हिस्सेदारी रहती थी.
जब से आधुनिक ढंग की नौकरियां शुरू हुई हैं, तब भी परिवार का मूल ढांचा कुछ खास नहीं बदला है. पति नौकरी पर बाहर और स्त्री गृहिणी बन कर घर के भीतर. पत्नी के पास कोई निजी राशि नहीं होती, क्योंकि माना जाता है कि उसे पैसे की जरूरत ही क्या है. कुछ समय से मांग की जा रही है कि घरेलू श्रम भी काम है, और इसका आर्थिक मूल्य तय किया जाना चाहिए. जब उसके श्रम का मूल्य आंका जाना शुरू हो जाएगा, तब उसकी अपनी हैसियत भी बनेगी. लेकिन नारीवाद के बड़े से बड़े पक्षधर भी परिवार में स्त्री श्रम के मूल्यांकन का कोई पैमाना तय नहीं कर पा रहे हैं. प्रश्न यह है कि उसकी गणना रु पये या डॉलर में कैसे की जाए. मेरे खयाल से स्त्री श्रम के मूल्यांकन का यह आग्रह बेहूदा से भी बढ़ कर है.
क्या दुनिया में कोई भी चीज ऐसी नहीं रहने दी जाएगी जिसे रु पये से तौलना उसकी तौहीन लगे? फिर तो बच्चा पैदा करने में स्त्री के त्याग और कष्टों का भी मौद्रिक मूल्यांकन होना चाहिए. परिवार तथा समाज, दोनों को उसका भुगतान करना चाहिए. पश्चिम के सफल पूंजीवाद ने वहां की विचारधाराओं में भी रु पये का सत डाल दिया है. लेकिन अगर हमें एक लोकतांत्रिक समाज बनाना है, नहीं बनाना है, तो अलग बात है, तब किसी विचार-वितर्क की कोई आवश्यकता नहीं है, लेकिन यह हमारे वश की बात रह नहीं गई है कि लोकतांत्रिक समाज बने या न बने, क्योंकि लोकतंत्र ही सामूहिक अस्तित्व का एकमात्र वैध आधार है, और इतिहास खींच-खींच कर सभी को उधर ही ले जा रहा है...
अगर हमें लोकतांत्रिक समाज बनाना है, तो सबसे पहले आर्थिक सत्ता को समाज के नियंत्रण में लाना होगा. ऐसी सभी स्वतंत्रताओं को गुडबाई कहना होगा जो दूसरों की स्वतंत्रताओं को नष्ट करती हैं. यह तय करना असंभव है कि ऐसा कभी हो पाएगा या नहीं पर परिवार के स्तर पर यह आज और अभी संभव है.
प्रस्ताव यह है कि पुरुष की आय को उसकी नहीं, बल्कि पूरे परिवार की आय माना जाए. वास्तव में वह परिवार की आय है भी. अगर स्त्री खाना बनाना, कपड़े धोना, घर को साफ-सुथरा रखना, बाजार जाना आदि कामकाज छोड़ दे और बच्चे दौड़-दौड़ कर छोटे-मोटे काम न करें तब पुरु ष के लिए रु पया कमाने वाला काम करना असंभव हो जाएगा. दूसरी बात यह है कि पति-पत्नी का संबंध कोई अनुबंध नहीं है, जिसमें दोनों पक्षों के अधिकार और कर्तव्य स्थिर कर दिए जाते हैं. यह प्रेम और अनुराग का रिश्ता है, और ऐसे रिश्तों में भी लोकतंत्र नहीं रह पाएगा तो वह बेचारा दुनिया में कहां शरण लेगा? संसद के बारे में तो सभी जानते हैं कि वह लोकतंत्र का बूचड़खाना है. हत्यारे बदल जाते हैं, बूचड़खाना बना रहता है.
पर परिवार को तो बचाया जा ही सकता है. किस्सा यों बने की परिवार की आय को कई हिस्सों में बांट दिया जाए. सब से बड़ा हिस्सा पारिवारिक बजट का हो. तय किया जाए कि इस महीने किस मद में कितना खर्च करना है. उसके बाद एक हिस्सा बचत खाते के लिए सुरक्षित रख दिया जाए. फिर परिवार के प्रत्येक सदस्य को उसकी जरूरत के हिसाब से निजी खर्च के लिए राशि दी जाए. यह वह राशि होगी जिसके बारे में कोई प्रश्न नहीं उठेगा कि उसे कैसे खर्च किया गया है. यह राशि पुरु ष, स्त्री, बुजुगरे, बच्चों सभी के लिए अलग-अलग तय की जाएगी.
इस प्रबंध से कई तरह के अच्छे परिणामों की उम्मीद की जा सकती है. घर में बराबरी का माहौल बनेगा. सभी को पता होगा कि हम कितने पानी में हैं, प्रत्येक सदस्य में जिम्मेदारी का भाव आएगा. निर्णय में हिस्सेदारी से संतुलित निर्णय करने की क्षमता बढ़ेगी. परिवार सचमुच एकजुट इकाई बन जाएगा. परिवार में यह काम कानून बना कर नहीं किया जा सकता पर अच्छे लोग अपने-अपने घर में तत्काल शुरू कर सकते हैं. परिवार को जीवन की पाठशाला कहा गया है. जितने अधिक परिवार लोकतांत्रिक बनेंगे, समाज भी उतना ही लोकतांत्रिक होगा.
Tweet |