अयोध्या विवाद : दिखावा भर न रह जाए वार्ता
सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या विवाद पर काफी अहम टिप्पणी करते हुए इस मसले के हल वार्ता से निकालने की सलाह दी है, जिससे एक बार फिर से यह मसला गरमा गया है.
अयोध्या विवाद : दिखावा भर न रह जाए वार्ता |
सुप्रीम कोर्ट ने इसे संवेदनशील और आस्था से जुड़ा मसला बताते हुए यह भी कहा कि जरूरत पड़ी तो सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और दूसरे जज भी मध्यस्थ बनने को तैयार है.
मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर ने तो यहां तक कहा कि वे दोनों पक्षों के द्वारा चुने मध्यस्थों के साथ भी बैठने को तैयार हैं. इस टिप्पणी पर सत्तारूढ़ भाजपा समेत तमाम राजनीतिक दलों ने सकारात्मक टिप्पणी की और इस पहल का स्वागत किया. पर पक्षकारों में इसे लेकर कोई उत्साह नहीं दिखा है. इसकी वजह भी है क्योंकि दशकों से चली आ रही अदालती प्रक्रिया ही नहीं वार्ताओं की श्रंखला चलने के बाद भी यह मसला वहीं-का-वहीं खड़ा है, जहां 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद ध्वंस के समय खड़ा था.
इस मामले के पक्षकार संगठन भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी को लेकर भी सवाल खड़ा कर रहे हैं. वास्तव में इस मसले में मुस्लिम संगठनों की ओर से अब तक जो भी प्रतिक्रियाएं आयी हैं, उनका लब्बो-लुबाब यह यह है कि अदालत इस मसले का हल करे. उसी पर उनका भरोसा है और वे मानते हैं कि अदालत के बाहर की समाधान वार्ताएं महज समय की बर्बादी हैं. इन संगठनों का सुब्रमण्यम स्वामी के नाम पर ऐतराज है और वे चाहते हैं कि अगर वार्ता से कोई निदान निकालना भी है तो सुप्रीम कोर्ट के जजों का एक पैनल बने. वहीं निर्मोही अखाड़ा और हिंदू महासभा ने भी स्वामी की हैसियत पर सवाल खड़ा किया है.
सुब्रमण्यम स्वामी की पहले से ही यह राय है कि वहां मंदिर बने और मस्जिद सरयू पार बने, उनके इस तर्क से मुसलिम संगठन सहमत नहीं है. यह ध्यान देने की बात है कि देश के इस सबसे चर्चित मामले के निदान को लेकर अब तक जाने कितने स्तर पर प्रयास किए गए हैं. इस मसले को लेकर सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर जाने कितनी कोशिशें की जा चुकी हैं पर कोई रास्ता नहीं निकला. राम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष महंत नृत्यगोपाल दास खुद मानते हैं कि राम जन्मभूमि की दावेदारी वार्ता से आगे निकल चुकी है और सारे साक्ष्य हमारे पक्ष में हैं, लिहाजा वार्ता का कोई औचित्य नहीं है. वास्तव में अयोध्या विवाद 1853 में अंग्रेजी राज में तूल पकड़ना आरंभ हुआ. अंग्रेज चाहते ही थे कि अंगारों को हवा मिले. 1885 में पहली बार अदालत में मामला पहुंचा और महंत रघुवर दास ने फैजाबाद अदालत में राम मंदिर बनाने की इजाजत मांगी.
आजादी के बाद 23 दिसम्बर, 1949 को बाबरी मस्जिद के भीतर भगवान राम की मूर्ति रखने के बाद मसले में नया मोड़ आ गया. तब हिंदुओं ने पूजा आरंभ कर दी और मुसलमानों ने नमाज पढ़ना बंद कर दिया. लेकिन वहां सरकारी आदेश से कुछ समय बाद ताला जड़ दिया गया. इसे लेकर पहला मुकदमा 1950 में दायर हुआ. बीच का दौर शांत रहा मगर 1984 में फिर से ताला खोलने की मुहिम के साथ विश्व हिंदू परिषद और संघ परिवार की सक्रियता बढ़ने लगी. 1 फरवरी 1986 को फैजाबाद के जिला जज ने ताला खुलवा कर हिंदुओं को पूजा की इजाजत दे दी तो फिर से मामला तूल पकड़ा. इसी के बाद बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी भी बनी.
भाजपा ने राजनीतिक लाभ के लिए इस मसले को जून 1989 में अपने एजेंडे में ले लिया और इसका खुला समर्थन किया. तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 9 नवम्बर 1989 को इस विवाद को टालने के लिए ढांचे के करीब शिलान्यास की इजाजत देकर एक नई भूल कर दी. ताला खुलना और शिलान्यास दोनों ही राजनीतिक तौर पर कांग्रेस के लिए भारी पड़ा, वहीं भाजपा को बड़ा राजनीतिक लाभ हुआ. भाजपा ने 1990 में इसी मसले पर केंद्र की वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस लिया और 1992 में पहली बार उसकी उत्तर प्रदेश में बहुमत से सरकार बन गई. 1990-91 के दौरान अयोध्या में हिंसक घटनाएं भी घटीं. पर 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरने के बाद से सारे समीकरण बदल चुके हैं.
अयोध्या के मुद्दे पर वीपी सिंह के शासनकाल से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल तक काफी कोशिशें चलीं. केंद्र सरकार में अयोध्या प्रकोष्ठ भी बना. 1990 में प्रधानमंत्री से वार्ता के लिए सर्वाधिकार प्राप्त कर समिति भी बनी जिसमें महंत अवैद्यनाथ, महंत नृत्य गोपाल दास, दाऊ दयाल खन्ना, अशोक सिंघल, विष्णुहरि डालमिया और गुमानमल लोढ़ा समेत आठ लोग शामिल थे. उसी दौरान महंत अवैद्यनाथ ने एक ऐसे फार्मूले को आगे किया था, जिसके तहत मंदिर भी बन जाए और मस्जिद भी नहीं टूटे. पर बात बनी नहीं.
कई स्तर पर वार्ताओं के बाद 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी गई. बाद में राव सरकार ने इसके पहल की कोशिश की. 27 अक्टूबर 1994 को सुप्रीम कोर्ट ने ही राष्ट्रपति को संदर्भ लौटाते हुए कहा कि अयोध्या एक तूफान है, वह तो गुजर जाएगा पर सुप्रीम कोर्ट की गरिमा और सम्मान के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता. न्यायमूर्ति ए.एम.अहमदी और न्यायमूर्ति एस.पी.भरूचा ने कहा कि हम इस मसले पर निर्णय दे सकते हैं पर यह कतई नहीं चाहते हैं कि केंद्र सरकार इसे आगे रख कर दोनों पक्षों यानी हिंदुओं और मुसलमानों पर मनोवैज्ञानिक दबाव डाल कर जबरिया निदान करे. सुप्रीम कोर्ट से इस बिंदु पर राय मांगी गई थी कि क्या विवादित स्थल कभी हिंदू मंदिर था.
इसी बीच, 30 सितम्बर 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने 2.77 एकड़ जमीन को मामले से जुड़े तीनों पक्षों को बराबर-बराबर बांटने का आदेश देकर एक नया विवाद खड़ा कर दिया. नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में 2014 में भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में भी संविधान के दायरे में मंदिर बनाने की बात कही गयी थी. पर बाद में केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने अयोध्या में ही सार्वजनिक तौर पर कह दिया था कि राज्य सभा में बहुमत नहीं है. लिहाजा राम मंदिर के लिए कानून बनाना संभव नहीं है. उधर, सत्ता में आते ही योगी की सरकार ने अयोध्या में रामायण संग्रहालय के लिए 25 एकड़ जमीन आवंटित करने का फैसला किया है. इस पर 154 करोड़ व्यय होंगे. इससे मुसलमान और सशंकित हैं. दोनों पक्षों के लिए यह भावनात्मक मुद्दा है. इस नाते शोभावार्ताओं से समाधान निकलेगा, इसमें संदेह है.
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