गोवा-मणिपुर : संवैधानिक तकाजे और चलन
बीआर अम्बेडकर ने कहा था, ‘भारत में लोकतंत्र भारतीय धरा की ऊपरी परत भर है, एक तरह से वह अलोकतांत्रिक ही है.’
संवैधानिक तकाजे और चलन |
मुख्यमंत्रियों की हालिया नियुक्तियों और उत्तर प्रदेश में चुनाव अभियान के पुट से हमारे लोकतंत्र की कमजोरी का पता चलता है. राज्यपालों के कार्यकलाप ने भी जब-तब अम्बेडकर के कथन को सही साबित किया है. मिगुल द कव्रेटेस ने कहा था, ‘अच्छे गवर्नरों की टांग टूटी होनी चाहिए और घर पर होना चाहिए.’ उसे राजनीति से ऊपर और हर हाल में भेदभावरहित और निष्पक्ष होना जरूरी है. लेकिन हमारे सत्तर साला अनुभव से पता चलता है कि राज्यपाल संघीय ढांचे को चोटिल करते हैं, और उनमें हद दज्रे की संवैधानिक निरंकुशता दिखलाई पड़ती है.
गोवा और मणिपुर में भाजपा द्वारा नियुक्त राज्यपालों ने भाजपा के मुख्यमंत्री नियुक्त करने में जो तत्परता दिखाई है, उसे लेकर संवैधानिक कानूनों के विशेषज्ञों में खासी चर्चा है. बेशक, कांग्रेस को इस बात के लिए कठघरे में खड़ा किया जा सकता है कि उसके नेताओं ने सरकार बनाने के लिए पहलकदमी नहीं दिखाई और समय रहते इस बाबत दावा नहीं पेश कर सके. बहरहाल, यह राजभवन तक कोई दौड़ नहीं थी. लेकिन दोनों राज्यों में मुख्यमंत्री नियुक्त करने में बेवजह की तेजी दिखाई गई. यह उत्तर प्रदेश के तो सिरे से उलट था, जहां योगी आदित्यनाथ को असेंबली चुनाव के नतीजों की घोषणा के आठ दिन पश्चात बेहद धीमे अंदाज में मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई. इस विवादास्पद संन्यासी ने लखनऊ में 19 मार्च को शपथ ली.
तमिलनाडु में सात महीनों से कार्यवाहक राज्यपाल का दायित्व निभा रहे महाराष्ट्र के राज्यपाल सी. विद्यासागर का फैसला मणिपुर की राज्यपाल नजमा हेपतुल्ला और गोवा की चंद्राकांत केवलकर के फैसले के बरक्स पूरी तरह विरोधाभासी था. विद्यासागर ने मुख्यमंत्री पद पर नियुक्ति के लिए कई दिनों तक शशिकला को आमंत्रित नहीं किया. हालांकि उनके पास स्पष्ट बहुमत था. उन्हें शीर्ष अदालत के फैसले की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए थी. सच तो यह है कि उनके पेन्नीरसेल्वम, जिनके पास शशिकला के 122 विधायकों के बरक्स दर्जन भर विधायक भी नहीं थे, के प्रति झुकाव ने उनकी निष्पक्षता पर सवालिया निशान लगा दिए. बीते वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने अरुणाचल प्रदेश के मामले में पाया कि भाजपा द्वारा नियुक्त राज्यपाल जेपी राजखोवा ने ‘संविधान को झटका दिया है, और उनका आचरण उचित नहीं था.’ मेघालय के राज्यपाल को यौन उत्पीड़न के आरोपों के चलते त्यागपत्र देना पड़ा.
इन उदाहरणों से पता चलता है कि भाजपा द्वारा नियुक्त राज्यपाल किसी भी तरह से कांग्रेस के शासनकाल में नियुक्त राज्यपालों से भिन्न नहीं हैं. कांग्रेस के दौर के राज्यपालों की भांति ये भी संविधान के बजाय केंद्र सरकार के प्रति ज्यादा निष्ठा दिखाते हैं. अनुच्छेद 164 (1) कहता है कि मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाएगी. संविधान में अनिवार्य रूप से यह नहीं कहा गया कि बहुमत पाने वाली पार्टी के नेता को ही मुख्यमंत्री के तौर पर नियुक्त किया जाना है. लेकिन स्थापित चलन रहा है कि राज्यपाल मनमाना आचरण नहीं कर सकते. संसदीय लोकतंत्र हमारे संविधान का बुनियादी ढांचा है. प्रत्येक राज्यपाल अनुच्छेद 159 के तहत पद की शपथ लेता है, ‘संविधान की रक्षा और उसकी संरक्षण और राज्य के लोगों की बेहतरी और सेवा को तत्पर रहेगा.’
राज्य की राजनीति में विभिन्न वगरे के प्रति उसे निष्पक्ष रहना जरूरी है. गोवा के राज्यपाल का कार्य संविधान के दायरे में था, लेकिन उन्होंने कांग्रेस, जो सबसे बड़ी पार्टी थी, से परामर्श करने या उसे टेलीफोन करके ही तनिक तो निष्पक्षता दिखाई होती. इससे उन्हें सभी की प्रशंसा मिलती. सरकारिया आयोग की सिफारिशों, जिनकी शीर्ष अदालत ने समर्थन किया है, में त्रिशंकु विधान सभा रहने की सूरत में राज्यपाल के समक्ष विकल्पों को क्रमानुसार इस प्रकार बताया है : पहला, चुनाव-पूर्व गठजोड़ द्वारा सर्वाधिक सीटें हासिल करने पर उसके नेता को आमंत्रित किया जाना; दूसरा, सर्वाधिक सीटें पाने वाली पार्टी, जिसके साथ ‘निर्दलीय’ समेत अन्य सदस्य हों, के नेता को आमंत्रित किया जाना; तीसरा, चुनाव के पश्चात गठजोड़ करने वाली पार्टियों के नेता को आमंत्रित किया जाना; और सबसे आखिर में चुनाव के बाद गठजोड़ करने पश्चात अन्य का समर्थन जुटा लेने वाली पार्टी के नेता को आमंत्रित किया जाना. इस हिसाब से भाजपा के दावे पर सबसे बाद में गौर किया जाना चाहिए था.
इतना ही नहीं, भाजपा के मुख्यमंत्री और अधिकतर मंत्रियों को पराजित होना पड़ा था, इसलिए गोवा में जनादेश तो भाजपा के खिलाफ था. चूंकि अब मनोहर पर्रिकर विश्वास मत जीत चुके हैं, संवैधानिक नैतिकता का मुद्दा अब मात्र अकादमिक रुचि का विषय रह गया है. भारत में त्रिशंकु विधान सभाओं का दौर बना रहना है, और इसलिए मुख्यमंत्रियों की नियुक्ति की समस्या का कोई स्थायी समाधान खोज लेना होगा.
संविधान सभा में निजामुद्दीन ने सुझाव दिया था कि मुख्यमंत्री को सदन की प्रथम बैठक में चुना जाना चाहिए. इस सुझाव के गुण-दोषों पर गौर करने का समय आ गया है. इसके लिए संविधान संशोधन जरूरी हो तो किया जाना चाहिए. इसके अलावा, चुनाव से छह माह पूर्व की अवधि में किसी नई पार्टी का पंजीकरण नहीं किया जाना चाहिए. छह महीने पहले ही निर्वाचन आयोग को पार्टी सदस्यों की सूची जारी कर देनी चाहिए ताकि चुनाव की पूर्व संध्या पर दल-बदल न होने पाए. विभिन्न चुनाव चिह्नों पर चुनाव लड़ चुके लोगों को मंत्री नहीं बनाया जाना चाहिए. उत्तराखंड और उप्र में दल बदल कर पहुंचे लोगों को मंत्री पद से नवाजा गया है. ‘चरित्र और चाल में अंतर’ का दावा करने वाली भाजपा के लिए यह कतई उचित नहीं कहा जा सकता.
(लेखक हैं)
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