लोस 2019 : विपक्ष की पसंद होंगे नीतीश!

Last Updated 21 Mar 2017 04:22:54 AM IST

वैसे तो महागठबंधन की राजनीति में दलों के रूप में नये दोस्त-दुश्मन का जुटना या कि हटना कोई असंभव संयोग नहीं रह गया है.


लोस 2019 : विपक्ष की पसंद होंगे नीतीश!

फिर भी पांच राज्यों विशेषकर उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनावी नतीजे के बाद भाजपा-जदयू के मिलन की संभावना फिलवक्त मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के राजनीतिक मिजाज से मेल खाती नहीं दिख रही है. दीगर है कि राजनीतिक गलियारों में नीतीश  का उत्तर प्रदेश के चुनाव के दौरान अचानक चुप्पी साध लेने तथा नोटबंदी पर भाजपा-नीत केंद्र सरकार के कदम का  समर्थन कर देने जैसे उद्धरणों को फिर से भाजपा-जदयू के दोस्त बनने के नये दौर से जोड़ कर देखे जाने लगा है.

अटकल से लगते इस संभावित समीकरण को राजद नेता रघुवंश प्रसाद सिंह के हमले या फिर पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के साथ-साथ राजद के कुछ नेताओं द्वारा तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने जैसे प्रकरणों से भी बल मिलता रहा है. एनडीए से 17 साल की दोस्ती टूटने के बाद दरअसल नीतीश के राजनीतिक व्यवहार में भी एक बदलाव आया जहां ‘संघ-मुक्त भारत’ की सोच रखते हुए केंद्र की नमो सरकार के विरुद्ध विपक्ष के नेतृत्व का स्वाभाविक चेहरा बनने की दृष्टि भी दिखी. नीतीश के विगत 10 वर्षो के ही शासनकाल को ही देखें तो नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना के साथ जब कभी भी मौका मिला राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फलक पर स्वीकार्यता को ले कर पुरजोर पहल भी देखी गई. बिहार दिवस का मौका हो या फिर कला, संस्कृति व साहित्य को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित कार्यक्रम जिनका फलाफल बिहार के बदले चरित्र के प्रक्षेपण और नीतीश की जय की शक्ल में आयोजन होता रहा. हालांकि, बिहार विधान सभा चुनाव-2015 में नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध जीत दर्ज करने के बाद राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय फलक पर स्वीकार्यता को लेकर कार्यक्रमों में जरूर तेजी दिखी. बौद्ध सर्किट, जैन सर्किट या सूफी महोत्सव के जरिए एक नये बिहार को सलीके से राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फलक पर रखा जाने लगा.

इन सब कार्यक्रमों के जरिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक ‘भरोसेमंद’ राजनेता के रूप में उभर कर भी आए. गुरु गोविन्द सिंह के 350 जन्मदिन पर 22 सितम्बर, 2016  से आयोजित तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सिख महोत्सव को ही लें तो पूरे पंजाब में ही नहीं विश्वास का एक सिरा कनाडा, यूके, यूएसए, म्यांमार, न्यूजीलैंड जैसे देशों से आए सिखों ने भी थाम लिया. परिणाम नीतीश के साथ-साथ बिहार की वाहवाही का मौका साबित हुआ. उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव-2017 में भी नीतीश ने महागठबंधन की परिकल्पना कर इस गठबंधन में सपा, बसपा, कांग्रेस के साथ अन्य छोटी-छोटी पार्टियों को शामिल कर भाजपा के सशक्त विरोध का आह्वान किया था. उत्तर प्रदेश में मिली भाजपा को भारी जीत के बाद बसपा और सपा को यह एहसास भी हुआ. यह सच भी है कि इस बदलाव के बाद ही भाजपा के विरुद्ध मोर्चाबंदी  का सशक्त प्लेटफार्म तैयार हो सकता है. मगर भाजपा के विरुद्ध इस मोर्चाबंदी में कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, एनसीपी, बीजद, वामदल, डीएमके व अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ सपा व बसपा की भूमिका भी अहम है.

वैसे उत्तर प्रदेश के परिणाम के बाद एक ऐसे राजनीतिक प्लेटफार्म की नींव जरूर पड़ गई है, जहां सांप्रदायिक ताकतों के आगे जिस विकल्प को जगह मिल रही है, आज उसका स्वाभाविक चेहरा नीतीश कुमार बनते जा रहे हैं. इसलिए भी कि ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ कांग्रेस असहज महसूस करेगी. नीतीश कुमार ने कांग्रेस को महागठबंधन में साथ कर एक नजीर ही पेश की. दीगर कि समाजवादी के नाते उन पर तंज भी कसे गये परंतु सांप्रदायिक ताकतों के विरुद्ध उनने महागठबंधन को समाज की जरूरत बताया. बहरहाल, बिहार में नीतीश कुमार को पीएम का उम्मीदवार बनाने की पहल भी हो गई है. मौजूदा बजट सत्र में बिहार के जदयू एवं राजद के विधायकों ने नीतीश को पीएम के उम्मीदवार बनाने की मुहिम को तेज कर दी है. उनके समर्थन में जदयू विधायक तो उतरे ही राजद के भी कई विधायक उन्हें पीएम पद का सशक्त उम्मीदवार बता रहे हैं. कांग्रेस के बड़े नेता मणिशंकर अय्यर ने एक वक्तव्य में नीतीश कुमार को विपक्ष की स्वाभाविक पसंद भी करार  दिया  है. अय्यर ने न केवल 2019 के लोक सभा चुनाव में बिहार का चुनावी मॉडल  अपनाने की सलाह दी है बल्कि इशारों में तो यहां कह डाला कि कांग्रेस को नेतृत्व की भी जिद्द छोड़ देनी चाहिए.

चंदन
लेखक


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