मणिपुर : उसका हार जाना
मणिपुर में इरोम शर्मिला की हार यह स्पष्ट करती है कि आम जनता मानवाधिकार कार्यकर्ता व जन आंदोलनकारी को राजनैतिक नेतृत्व देने को अपनी प्राथमिकता में नहीं रखती है.
मणिपुर : उसका हार जाना |
इन दोनों को वह स्वतंत्र रूप से अपनी-अपनी भूमिका में देखना ही ज्यादा पसंद करती है जबकि इरोम ने मणिपुरी जनता की गुहार को सत्ता प्रतिष्ठान तक पहुंचाने के लिए चुनावी राजनीति का रास्ता पकड़ा था. कुछ लोग सामाजिक कार्यकर्ताओं को राजनीति में आने को अच्छा संकेत समझते हों, लेकिन मेरी समझ से यह आपकी अपनी विधा या क्षेत्र के साथ किया जाने वाला अन्याय जैसा है.
किसी एक क्षेत्र में अपने योगदान का प्रतिफल आप अगर दूसरे क्षेत्र में पाना चाहते हैं तो कहीं न कहीं यह आम के बाग में अंगूर की कामना जैसा ही है. हर व्यक्ति और विधा का जीवन-समाज में अपना महत्त्व है. किसी एक दूसरे की न तो आपस में तुलना की जा सकती है और न तो हमेशा यह एक दूसरे के पूरक हो सकते हैं. अक्सर देखने को मिलता है कि हमारे कुछ बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी मित्र जो आम दिनों में दलीय राजनीति की विद्रूपताओं पर ताना मारते रहते हैं, चुनावों के समय उनका आचरण किसी राजनैतिक कार्यकर्ता की मानिंद हो जाता है. एक नागरिक और वोटर होने के नाते के यह हर किसी का संवैधानिक अधिकार है.
लेकिन जब हमने अपना कार्यक्षेत्र राजनीति से इतर रखा है तो श्रेयस्कर यही होना चाहिए कि हम अपने मूल कार्यक्षेत्र को ही अपनी प्राथमिकता बनाए रखें. वैसे भी अपने यहां कहा जाता है कि जिसका काम उसी को साजे... हां अगर यह सुनिश्चित हो जाए कि इसके लिए संसद या विधानसभा में चुनावी प्रक्रिया के जरिए दाखिल होने के सिवा दूसरा कोई चारा नहीं है, तब तो कुछ कहा ही नहीं जा सकता है. वैसे ऐसा होना यानी मानवाधिकार जैसे मसलों पर सत्ता का उपेक्षापूर्ण व्यवहार दशकों तक बना रहना किसी भी हाल में लोकतंत्र के लिए सुखद नहीं है क्योंकि इससे जनता के मन में लोकतंत्र के प्रति विश्वास में जो कमी आती है, वह कालांतर में सत्ता और जनता के बीच बढ़ती दूरियों का सबब बन जाती है.
लेकिन किसी भी हाल में इस चुनावी हार का यह मतलब नहीं निकाला जा सकता कि इरोम शर्मिला के सामाजिक महत्त्व में कोई कमी आई है या उनके अभियान को मिलने वाले समर्थन और समर्थकों की संख्या में कोई गिरावट दर्ज की जाएगी, बल्कि देखा जाए तो अपनी आवाज को देश के हर हिस्से और हर वर्ग तक पहुंचाने को उनके अभियान को एक तरह से बल ही मिला है. आगामी दिनों में आम जनता के इस समर्थन में उत्तरोत्तर वृद्धि तो होगी ही वह और उन जैसे अनेकों लोग हमारे आदर्श हैं और रहेंगे भी. पिछले लोक सभा चुनाव में झारखंड की ‘आयरन लेडी’ दयामनी वरला को भी हार का मुंह देखना पड़ा था.
दयामनी को जो झारखंड में बिना किसी राजनैतिक दल के समर्थन के सिर्फ जनता के सहयोग के बूते कॉरपोरेट घरानों से लेकर राज्य की सत्ता के जन विराधी नीतियों वाले मंसूबों को वर्षो से विफल करती रही हैं, तमाम पल्रोभन और धमकियों से बेपरवाह होकर. इससे पूर्व बिहार में फणीरनाथ रेणु की चुनावी हार की स्मृतियां अभी भी ताजा हैं. लेकिन इन पराजयों से इनमें से किसी के सामाजिक महत्त्व और स्वीकार्यता में कहीं से कोई कमी नहीं आई बल्कि बाद के वर्षो में उनकी विचारधारा से प्रभावित होनेवालों और उन्हें अपना आदर्श मानने वालों की संख्या में वृद्धि होती गई.
ऐसे ही लोगों को राष्ट्र निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाने के अवसर देने के लिए ऊपरी सदन में समाज सुधारकों, कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों, शिक्षाविदों, वैज्ञानिकों, तकनीकी विशेषज्ञों से लेकर जन आंदोलनों के जरिए मानवाधिकारों की लड़ाई लड़ने वालों के मनोनयन की व्यवस्था की गई है. लेकिन पिछले कुछ दशकों से लगभग सभी राजनैतिक दलों ने सक्रिय राजनीति से जुड़े अपने साथियों के संसद या विधान परिषद में जाने के लिए पिछले दरवाजे की तरह इसके इस्तेमाल की परंपरा अपनाने लगे.
अधिकांश मामलों में धन-बल के सहारे पहुंचने में सक्षम लोगों को जगह दिया जाने लगा. हाल के वर्षो में तो कुछ राज्यों में यह भी देखा गया कि दल बदल कानून के तहत सदस्यता गंवाने वालों को इसके जरिए लाभ पहुंचाया गया यानी विधान सभा की सदस्यता गंवाने वालों को विधान परिषद में जगह देकर उनके नुकसान की भरपाई की गई. इस स्थिति को बदल कर संविधान की मूल भावना का पालन करने की जरूरत है.
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