विश्लेषण : कहीं जीत, कहीं सत्ता की लूट

Last Updated 16 Mar 2017 01:41:44 AM IST

विधानसभायी चुनाव के ताजातरीन चक्र की मुख्य कहानी, निर्विवाद रूप से उत्तर प्रदेश तथा उत्तराखंड में भाजपा की अभूतपूर्व जीत की ही कहानी है.


विश्लेषण : कहीं जीत, कहीं सत्ता की लूट

अचरज की बात नहीं है कि इन दो राज्यों में और सबसे बढ़कर उत्तर प्रदेश में दो-तिहाई बहुमत से भाजपा की जीत के आने वाले वर्षो में देश की राजनीति और यहां तक कि 2019 के अगले आम चुनाव तक के लिए महत्वपूर्ण निहितार्थ माने जा रहे हैं.

फिर भी, इस भारी जीत के बाद भाजपा द्वारा आयोजित ‘अभिनंदन’ आयोजन में अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी पार्टी व नेताओं में ‘जीत के भार से विनम्रता’ आने का जो दावा और वादा किया था, उनके दूसरे अनेकानेक दावों तथा वादों की तरह बिल्कुल खोखला साबित हुआ है. वास्तव में ठीक उसी सयम जब प्रधानमंत्री इस जीत से ‘विनम्रता’ आने का दावा कर रहे थे, उनकी अपनी पार्टी के नेता खुद उनके ही इशारे पर, जहां भी दांव लग जाए येन-केन-प्रकारेण सत्ता हथियाने की सर्वभक्षी हवस का परिचय देते हुए गोवा और मणिपुर में, कांग्रेस नेता पी चिदंबरम के शब्दों का सहारा लें तो ‘चुनाव (जीत) चुराने’ की नंगी जोड़-तोड़ में लगे हुए थे.

अचरज की बात नहीं कि गोवा के मामले में कांग्रेस की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा है. याद रहे कि इससे पहले, अरुणाचल प्रदेश तथा उत्तराखंड में दलदबल के जरिए और राज्यपालों की मदद से अपनी सरकार थोपने की भाजपा की ऐसी ही कोशिशों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट को बाकायदा हस्तक्षेप करना पड़ा था. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने गोवा में राज्यपाल द्वारा भाजपा नेता मनोहर पर्रिकर को मुख्यमंत्री मनोनीत किए जाने और उन्हें सुप्रीम कोर्ट द्वारा याचिका पर सुनवाई किए जाने के दिन ही शाम में शपथ दिलाए जाने के राज्यपाल के निर्णय पर सीधे-सीधे रोक नहीं लगाई है, फिर भी अदालत के अड़तालीस घंटे में यानी बृहस्पतिवार की सुबह विधान सभा में बहुमत का फैसला कराए जाने के निर्णय के बाद राज्यपाल का फैसला अवहनीय हो जाता है.

याद रहे कि राज्यपाल ने पर्रिकर को विधान सभा में अपना बहुमत साबित करने के लिए पंद्रह दिन का समय देने का भी फैसला किया था, जिसे अदालतने स्पष्ट रूप से पलट दिया है. यह दूसरी बात है कि कोर्ट के फैसले के बाद भी भाजपा पर्रिकर को सदन में बहुमत के फैसले से पहले ही मुख्यमंत्री बनवाने पर बजिद बनी रही. वह अच्छी तरह जानती है कि बहुमत साबित करने की तलवार सिर पर लटकी होने के बावजूद अपना दावेदार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाना अल्पमत को बहुमत में तब्दील करने में कितना मददगार हो सकता है. इसके बावजूद भाजपा अगर गोवा विधान सभा में जरूरी संख्या दिखाने में नाकामयाब रहती है, तो ही अचरज की बात होगी. मुख्यमंत्री के रूप में पर्रिकर के साथ भाजपा के विधायकों को छोड़कर, गोवा फॉर्वड के सभी तीन तथा एमजीपी के दो विधायकों और दो निर्दलीय विधायकों को मंत्रिपद की शपथ दिलाए जाने से इसका भी अंदाजा लग जाता है कि भाजपा ने किस सौदे से संख्या का जुगाड़ किया है.

अल्पमत को जोड़-तोड़ से बहुमत में तब्दील करने की यही कहानी मणिपुर में भी दोहराई जा सकती है. वास्तव में गोवा के मामले में यह राजनीतिक डाकेजनी इसलिए और भी भयानक हो जाती है कि 2017 के विधानसभायी चुनाव में गोवा की जनता ने साफ तौर पर भाजपा के खिलाफ जनादेश दिया है. एक तिहाई से भी कम वोट और 40 सदस्यों की विधान सभा में सिर्फ 13 सीटें देकर गोवा की जनता ने साफ तौर पर इस चुनाव में भाजपा को राज्य में सत्ता से बाहर करने का ही इरादा जताया है. गोवा की जनता ने भाजपा की प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस को 17 सीटें देकर स्पष्ट रूप से उसके पक्ष में फैसला भले न सुनाया हो, फिर भी उसके प्रति कम से कम भाजपा से ज्यादा झुकाव तो दिखाया ही है.

बेशक, जनादेश के व्यापक अर्थों में देखें तो मणिपुर की जनता के त्रिशंकु विधान सभा के चुनाव में उसी तरह से पिछली कांग्रेस सरकार के खिलाफ जनादेश को देखा जा सकता है.

हालांकि यह नहीं भुलाया जा सकता कि मणिपुर में भी साठ सदस्यीय विधान सभा में 28 सीटें हासिल कर कांग्रेस पार्टी 21 सीटें हासिल करने वाली अपनी मुख्य प्रतिद्वंद्वी भाजपा से बहुत आगे ही नहीं रही, अपने बूते बहुमत से भी दो ही सीटें पीछे रही है.

दोनों ही मामलों में स्पष्ट रूप से सबसे बड़ी पार्टी के रूप में आने के बाद सरकार बनाने का पहला मौका कांग्रेस को ही मिलना चाहिए था. लेकिन, जनतंत्र और जनादेश के तकाजों को ताक पर रखकर भाजपा के किसी भी तरह से गोवा में दोबाराकाबिज होने के लिए कमर कसे होने का पता तो तभी चल गया था, जब चुनाव नतीजे आते-आते खुद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने ऐलान कर दिया था कि गोवा और मणिपुर में भाजपा सरकार बना लेगी. भाजपा संसदीय दल की चुनाव के फौरन बाद हुई बैठक में जिन पांच राज्यों में चुनाव हुआ, उनमें से सिर्फ गोवा के मामले में अपवादस्वरूप भाजपा विधायक दल के नेता तथा उसकी ओर से मुख्यमंत्री पद के दावेदार का नाम हाथों-हाथ तय कर दिया गया और यह नाम था, रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर का. उत्तरप्रदेश तथा उत्तराखंड में तीन-चौथाई बहुमत से जीत के बावजूद विधायक दल का नेता सबसे पहले अगर गोवा के मामले में ही तय किया गया तो इसीलिए कि छोटी पार्टियों तथा विधायकों की खरीद-फरोख्त के लिए ‘नेता’ के सवाल पर स्पष्टता बहुत जरूरी होती है.

प्रधानमंत्री ने विधानसभायी चुनाव के वर्तमान चक्र से जिस ‘नए भारत’ की नींव पड़ने का दावा किया है, लगता है उसमें राज्यपालों की मदद और खरीद-फरोख्त से ऐसे ही जनता के जनादेश पर पानी फेरा जा रहा होगा. लेकिन, यह नया भारत होगा या सत्ता पर कांग्रेस की इजारेदारी के जमाने का साठ और सत्तर के दशकों का पुराना भारत! उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की प्रचंड जीत के बावजूद गोवा तथा मणिपुर में भाजपा का जबरन कब्जा जनतंत्र के लिए निस्संदेह चिंताजनक संकेत हैं.

राजेन्द्र शर्मा
लेखक


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