शहीद, जिन्हें इतिहास ने भुलाया
आजादी के इतने सालों बाद भी वे किसान-पुत्र उपेक्षित हैं जिनकी जान की आहुति की बुनियाद पर इस देश की आजादी खड़ी है.
शहीद, जिन्हें इतिहास ने भुलाया |
आजादी की पूरी लड़ाई को अगर ध्यान से देखा जाए तो आपको हजारों भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु और अशफाक मिल जाएगे. इतिहास की यही विडंबना है कि एक समय से एक वर्ग के ही कुछ को वह हीरो बना देता है, बाकी का जिक्र तक नहीं होता. पूर्वी उत्तर प्रदेश और उससे लगा बिहार का हिस्सा 1942 के आंदोलन का बहुत मजबूत केंद्र था.
अंग्रेजों के खिलाफ क्षेत्र की जनता में ऐसा आक्रोश था कि उसने ठान लिया था कि अब अंग्रेज यहां नहीं रहेंगे, चाहे उसके लिए कोई भी कीमत देनी पड़े. हुआ भी ऐसा ही. वाराणसी से लेकर बलिया तक और उधर भभुआ से लेकर आरा-छपरा तक अंग्रेजों को हर जगह भीषण विरोध का सामना करना पड़ा. पूरे सरकारी तंत्र को किसान-पुत्रों ने रोक दिया.
यहां कुछ घटनाओं का जिक्र आवश्यक है. उत्तर प्रदेश के जिले गाजीपुर की मुहम्मदाबाद तहसील पर 18 अगस्त 1942 को तिरंगा लहराने के प्रयास में आठ लोग शहीद हुए. सभी शहीद एक ही गांव शेरपुर के रहने वाले थे. शहीदों में डॉ. शिवपूजन राय भी शामिल थे. वे इस आंदोलन के नेता थे. दरअसल, मुहम्मदाबाद के आंदोलन के बाद गाजीपुर और बलिया जिले आजाद हो गए थे. वहां दोबारा अपनी सत्ता कायम करने के लिए ‘सभ्य’ अंग्रेजों ने जो बर्बरता दिखाई उसका उल्लेख नेशनल हेराल्ड के दुबारा प्रकाशन के बाद 1945 में किया गया. ‘गाजीपुर की नादिरशाही’ शीषर्क अखबार से लिखा- ‘पूर्वाचल के अन्य जिलों की तरह गाजीपुर को भी 1942 और उसके बाद क्रूर दमन का शिकार बनना पड़ा.
शेरपुर गांव में लोगों ने कांग्रेस राज की स्थापना कर दी. उनका संगठन बेहतरीन था और उन्होंने गांवों में कुछ दिनों तक शांतिपूर्ण तरीके से प्रशासनिक व्यवस्था संभाली. मगर कुछ ही दिनों बाद हार्डी और उसकी सेना ने मार्च करना शुरू कर दिया और इस प्रशासनिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर डाला. अखबार के मुताबिक 24 अगस्त को गाजीपुर का जिला मजिस्ट्रेट मुनरो 400 बलूची सैनिकों के साथ शेरपुर गांव पहुंचा. निहत्थे ग्रामीण हथियारबंद सेना का सामना नहीं कर पाए. सेना ने गांव में लूटमार शुरू कर दी. महिलाओं के गहने तक छीने गए.
अखबार ने आगे लिखा है कि मुनरो का कत्लेआम मुहम्मदाबाद तहसील की गोलीबारी के बाद ही नहीं रुका. उसने छह दिन बाद गांव में लूट और हत्या का नंगा नाच किया. गांव में 80 घर जलाए गए और 400 घरों को लूटा गया. अखबार में सिर्फ छह बहादुर लोगों की शहादत का जिक्र है. हालांकि यहां आठ लोग शहीद हुए थे. सीताराम राय, श्याम नारायण राय, हृदय नारायण राय पाठक अंग्रेजों की गोली से घायल हुए और गिरफ्तारी भी झेली. मुनरो और उसके सैनिकों की लूटपाट में जान बचाने के चक्कर में राधिकारानी ही नहीं, बल्कि रमाशंकर लाल और खेदन यादव भी मारे गए थे. समाचारों को तत्कालीन इतिहास माना जाता है लेकिन यहां उसमें भी चूक दिख रही है. यहां दो वंश नारायण हैं, जिसके चलते पत्रकार को चूक का मौका मिला. हालांकि अखबार में लिखे नामों में भी कई तरह की चूक है. बहरहाल, इसका प्रभाव आगे यह हुआ कि अंतत: अंग्रेजों को उस क्षेत्र को छोड़कर जाना पड़ा.
कुर्बानी की इस अनदेखी के लिए इतिहास लेखकों की उपेक्षा जितनी दोषी है, उससे कई गुना ज्यादा दोष उन सरकारों का है जिन्होंने हर साल लालकिले से झंडा फहराया. पूर्वाचल के ये शहीद किसी राज घराने या औद्योगिक कुनबे के नहीं थे. ये सभी किसानों के लड़के थे, उन किसानों के जिनके लिए देश और जमीन का सम्मान अपनी मां के बराबर है. जिस तरह से इतिहासकारों ने हमारे शहीदों को इतिहास में जगह नहीं दी, वैसे ही इस आजाद देश की सरकारों ने उस क्षेत्र को विकास की योजना में जगह नहीं दी. आज तक इस क्षेत्र के साथ सौतेला व्यवहार हो रहा है. जरूरत है कि शहादत की कहानी से न केवल लोगों को अवगत कराया जाए, बल्कि क्षेत्र का विकास कराकर वीरों को श्रद्धांजलि भी अर्पित की जाए.
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