ओबामा को न्योतने का मतलब
भारत और अमेरिका के सम्बन्धों में हितों का अभूतपूर्व निहित पक्ष वर्तमान में अतिरिक्त भार के साथ देखा जा सकता है, जो पिछले 64 वर्षो में द्विपक्षीय वार्ता में पहले कभी नहीं देखा गया.
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (फाइल फोटो) |
शीत युद्ध की समाप्ति के बाद तथा विश्व व्यापार केंद्र पर आतंकी हमले के उपरांत दोनों देश पहले से कहीं अधिक नजदीक आये हैं. भारत की तेजी से विकास करती अर्थव्यवस्था, उदारीकरण की नीति तथा देश में फैला बड़ा बाजार, सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में होता विकास, सैन्य क्षमता में वृद्धि तथा विश्व को आतंकवाद के खतरे के कारण भारत-अमेरिका सम्बन्धों में सकारात्मक बदलाव उत्तरोत्तर वृद्धि वाला रहा. भारत तथा संयुक्त राज्य अमेरिका की मित्रता स्वाभाविक है क्योंकि अमेरिका जहां विश्व का सबसे पुराना लोकतंत्र है, वहीं भारत विश्व का सबसे विशाल लोकतंत्र है. दोनों ही देशों का अतीत औपनिवेशिक सत्ता से जुड़ा रहा. दोनों बहुल समाज के हिमायती हैं. अनेक समानताएं और इनसे पनपे सम्बन्धों के उतार-चढ़ाव के चलते दोनों देशों के बीच वर्तमान सम्बन्ध कहीं अधिक नजदीकी लिए हुए हैं.
इन्हीं संदर्भों का परिणाम है कि अमेरिका के 44वें राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत के 65वें गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि होंगे. यह पहला अवसर है जब विश्व का सबसे अधिक शक्तिशाली देश सबसे बड़े लोकतंत्र वाले देश के गणतंत्र दिवस के महोत्सव में मुख्य अतिथि के तौर पर शामिल हो रहा है. दरअसल सितम्बर में भारतीय प्रधानमंत्री का अमेरिका दौरा ओबामा को भारत आने का मार्ग प्रशस्त कर रहा था. दोनों देशों के प्रमुखों ने गर्मजोशी के साथ जो सहयोगात्मक परिप्रेक्ष्य विकसित किया था, उसी का यह परिणाम है. इसके अलावा जी-20 के शिखर सम्मेलन के दौरान ऑस्ट्रेलिया में पुन: विकसित द्विपक्षीय अवधारणा के चलते ओबामा के अंदर भारत आने की आतुरता कमोबेश निहित हो चुकी थी. प्रधानमंत्री मोदी ने जिस कद के साथ पिछले छह महीने में आठ विदेशी दौरों और 31 दिनों की मेहनत के चलते अपना काम किया, उसी का यह नतीजा है कि ओबामा 26 जनवरी, 2015 को भारत के गणतंत्र महोत्सव में शामिल होने आ रहे हैं.
गणतंत्र दिवस पर विदेशी राष्ट्र प्रमुखों या अन्य प्रतिनिधियों को मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाने की परम्परा हमारे संविधान जितनी ही पुरानी है. 26 जनवरी, 1950 के गणतंत्र दिवस से ही यह देखी जा सकती है. प्रथम गणतंत्र दिवस में मुख्य अतिथि के तौर पर इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकार्णो शामिल हुए थे. जहां वर्ष 1950 से 70 के बीच ग्यारह दिवसों में अतिथियों की अनुपस्थिति रही, वहीं 1968 में दो मुख्य अतिथि थे. 1971 से अब तक किसी भी गणतंत्र दिवस में मुख्य अतिथियों की अनुपस्थिति नहीं रही. इंग्लैंड, पाकिस्तान, रूस और जापान सहित अब तक 56 राष्ट्रप्रमुख मुख्य अतिथि के तौर पर विभिन्न वर्षो में गणतंत्र दिवस के महोत्सव में शामिल होते रहे हैं. इसी क्रम 26 जनवरी, 2015 के 65वें गणतंत्र दिवस पर अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के 57वें मुख्य अतिथि के तौर पर शामिल होने से इस दिवस की महत्ता कहीं अधिक बढ़ जाती है.
दरअसल मोदी-ओबामा विचारधारा विश्व विन्यास में विवेचनात्मक पहलू को समेटे हुए है. पूर्वी एशियाई सम्मेलन से इतर अमेरिकी राष्ट्रपति ने नरेन्द्र मोदी की तारीफ में पुल बांधे, ओबामा ने मोदी को ‘मैन ऑफ एक्शन’ बताया था. उन्होंने मोदी की निजी नेतृत्व क्षमता को भी काफी सराहा था. मोदी द्वारा की गयी सितम्बर यात्रा को भी अमेरिका ने बेहद सफल करार दिया था. मोदी ने ओबामा से कहा था कि भारत की ‘लुक ईस्ट, लिंक वेस्ट’ पॉलिसी के लिए अमेरिका काफी अहम है. उन्होंने यह भी कहा था कि मंगल पर भारत-अमेरिका मिलन के बाद अब हम धरती पर मिल रहे हैं. बतौर मुख्य अतिथि बराक ओबामा गणतंत्र दिवस परेड समारोह में गवाह बनने वाले पहले अमेरिकी राष्ट्रपति होंगे. वे अपने कार्यकाल में दूसरी बार भारत की यात्रा करने वाले भी पहले अमेरिकी राष्ट्रपति होंगे.
पिछले छह दशकों से अधिक के इतिहास में शायद ही भारत की वैदेशिक नीति का कूटनीतिक पथ इतना मजबूत रहा हो. बेशक नेहरू काल की वैदेशिक नीति बहुत अधिक सशक्त मानी जाती है परन्तु उस काल में भी पाकिस्तान और चीन के मामले में कूटनीतिक दशा असुरक्षित थी. वैदेशिक नीतियों के मामले में मोदी काल में की जा रही कूटनीति तुलनात्मक दृष्टि से न केवल अधिक प्रभावशाली बल्कि कहीं अधिक संयोजित भी प्रतीत होती है. भूटान और नेपाल की यात्रा के चलते भारत के प्रति पड़ोसी देशों के विचार में नयापन आया. जापान तत्पश्चात अमेरिका से लेकर आसियान होते हुए जी-20 शिखर सम्मेलन तक जो वैदेशिक आयाम विकसित हुए, उससे भारत की कूटनीति फलक पर आ गयी. इसके चलते कुछ देश न केवल मनोवैज्ञानिक दबाव का सामना करने लगे है, बल्कि हाशिये पर भी देखे जा सकते हैं.
ऑस्ट्रेलिया से किया गया यूरेनियम समझौता जहां भारत की बेहतर कूटनीति का परिणाम है, वहीं यह चीन पर मनोवैज्ञानिक दबाव विकसित करने का भी काम करता है. ओबामा की गणतंत्र दिवस यात्रा की छटपटाहट पाकिस्तान को होना स्वाभाविक है. इसी का परिणाम था कि प्रधानमंत्री नवाज शरीफ द्वारा पाकिस्तान आने के निमंत्रण को अमेरिकी राष्ट्रपति ने अनुकूल समय न होने की बात कह कर अस्वीकार कर दिया. जिसके चलते पाकिस्तान मनोवैज्ञानिक रूप से न केवल कमजोर हुआ बल्कि भारत के समानांतर कूटनीतिक दावा करने के मामले में भी विफल हो गया. फलस्वरूप पाकिस्तानी प्रधानमंत्री द्वारा कश्मीर राग पुन: अलापा गया और अमेरिकी राष्ट्रपति को इसके समाधान के फायदे गिनाने लगे.
सवाल यह उठता है कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की बौखलाहट कश्मीर मुद्दे को लेकर है या भारत के बढ़ते कद से है? बड़ा सवाल यह है कि क्या पाकिस्तान वास्तव में कश्मीर समस्या के प्रति संवेदनशील है. द्विपक्षीय वार्ता को लेकर उसकी मंशा साफ नहीं है. उसके द्वारा मामले को बहुपक्षीय बनाने की कोशिश की जाती रही है.
दरअसल पाकिस्तान ने कभी भी कश्मीर समस्या को बातचीत से हल करने वाले चिकने मार्ग का निर्माण किया ही नहीं. बहरहाल, ओबामा द्वारा शरीफ के निमंत्रण को अस्वीकार किये जाने से जहां पाकिस्तान हाशिये पर दिख रहा है वहीं पूंजीवादी अमेरिका का भारत के साथ अधिक सघन सम्बन्ध होने से साम्यवादी देश चीन पर भी मनोवैज्ञानिक दबाव बढ़ जायेगा जबकि भारत दक्षिण एशिया में नेतृत्वकर्ता की भूमिका के साथ-साथ वैश्विक साख जुटाने में भी कामयाब हो सकता है. आजादी के बाद से ही भारत जिस वैदेशिक नीति को लेकर कवायद में लगा हुआ था, उसका समाकलित भाव इन दिनों की कूटनीति में परिलक्षित होने लगा है.
ओबामा का गणतंत्र दिवस पर भारत का आमंत्रण स्वीकार करना इस बात को और पुख्ता करता है कि भारत-अमेरिका सम्बन्ध पहले से कहीं अधिक नियोजित हुए हैं. वर्तमान में वैश्विक सम्बन्धों के चलते जो आशाएं जगी हैं, उससे यह प्रतीत होता है कि आने वाले वर्षो में भारतीय विदेश नीति बेहतर ताकत वाली हो सकेगी. आने वाले गणतंत्र दिवस का यह महोत्सव भारत-अमेरिका सम्बन्धों के लिहाज से अधिक चमकदार हो सकता है साथ ही भारत की कूटनीति कहीं अधिक गुणवत्ता से युक्त हो सकती है. जिस प्रकार के सम्बन्धों का संजाल भारत और अमेरिका जैसे अन्य देशों के बीच पनप रहा है, आने वाले दिनों में उसके कुछ और मायने देखे जा सकेंगे.
| Tweet |