टैगोर साहित्य में जाति के सवाल

Last Updated 06 Nov 2010 11:32:51 PM IST

हम इतिहास की कुछ घटनाएं नजरअन्दाज करके खासे ही संतुष्ट होते हैं क्योंकि उनका कड़वा सच झेलना मुश्किल होता है।


 रवीन्द्रनाथ टैगोर रामकृष्ण परमहंस के बेलूर मठ के आग्रह के बावजूद वहां नहीं गये थे और इससे पहले उड़ीसा के मंदिर में प्रवेश से रोक दिये गये थे। अब जब उनकी 150 वीं जयंती मनायी जा रही है। इस मौके पर क्या यह जरूरी नहीं होगा कि हम इन अत्यन्त गम्भीर घटनाओं की पड़ताल कर लें? भगिनी निवेदिता ने टैगोर से आग्रह किया था कि वे बेलूर मठ आएं। इस पर टैगोर ने खीझ कर जवाब दिया था, 'वे आ सकते हैं बशर्ते विवेकानन्द वहां हर शाम नाचने का कर्मकांड बन्द कर दें।'

इस प्रसंग का जिक्र आईएएस अधिकारी एसके विश्वास ने अपनी किताब में विस्तार से किया है। इसी लेखक ने यह भी लिखा है कि कवि रवीन्द्र उड़ीसा के मंदिर में जाने से इसलिए रोके गये थे कि वे दलित जाति के थे और उनका मंदिर में प्रवेश वर्जित था। यही वजह है कि रवि बाबू ने 'जूते का आविष्कार' जैसी तीखी व्यंग्य कविता लिखी जिसमें राजा और उनके बुद्धिमान विद्वान मंत्रियों की समझ पर जूते बनाने वाले कारीगर का सामान्य ज्ञान भारी पड़ता है।

साहित्य का नोबेल पुरस्कार पाने के बाद टैगोर देश के सर्वाधिक चर्चित और सम्मानित रचनाकार हो गये थे लेकिन यह तथ्य कभी सामने नहीं आया था कि वे दलित जातीय प्रतिभा थे। कुछेक जीवनीकारों ने तो बाकायदा उन्हें ब्राह्मण ही लिखा है। यह देखना दिलचस्प है कि जिस प्रतिभा को दलित होने के कारण पुरी के जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश करने से रोका गया था उसे ही नोबेल पुरस्कार के बाद लोग ब्राह्मण घोषित करने लग गये। चूंकि बंगाल में उनकी जाति 'पीरल्ली' कही जाती थी। इसलिए 'पीरल्ली' को भी ब्राह्मण या पूर्व ब्राह्मण माना जाने लगा गोकि 'पीरल्ली जाति घृणा लगातार पाती रही।

हैरानी की बात है कि दलित रचनाकारों ने टैगोर को अपने विमर्श में एक दलित जातीय विराट प्रतिभा को कभी याद नहीं किया। रवीन्द्रनाथ की जाति पीरल्ली थी जो बंगाल में दलित जाति रही है। बंगाल में दलित जाति की हैसियत काफी बड़ी थी। 'मनुस्मृति' के अनुसार दलित जाति शूद्र पिता और ब्राह्मण मां की संतान से विकसित हुई जाति है (मनु 10-16) लेकिन इसी पीरल्ली जाति के हरिचंद ठाकुर ने 19 वीं सदी में इस जातीय अवमानना के विरुद्ध बड़ा आन्दोलन छेड़ा था।

यहां यह भी ध्यान देने वाली बात है कि इसी पीरल्ली जाति के लोगों ने जातीय अपमान और उत्पीड़न से त्रस्त हो कर लाखों की तादाद में धर्म परिवर्तन कर मुसलमान बन गये थे। अक्टूबर 1998 में प्रकाशित डॉ. तनुजा मजूमदार के एक लेख में खुद रविबाबू ने पूर्वजों द्वारा धर्म परिवर्तन करने के बाद इस्लाम स्वीकार करने का विस्तारपूर्वक विवरण दिया था। उन्हीं में एक कामदेव थे,जो बाद में कमालुद्दीन खां चौधरी हो गये थे जिनके वंशज कोलकात्ता के पार्क सर्कस में रहते हैं।

डॉ. मजूमदार के  इसी लेख से दो उद्धरण मैं यहां देना चाहूंगा हिन्दू समाज का कोई भी प्रिंस द्वारकानाथ ठाकुर के इस यशस्वी पुत्र से शादी नहीं करना चाहता था विवश होकर देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने ही एक कर्मचारी की अशिक्षित और श्यामवर्ण बेटी से (रविबाबू का) विवाह किया। लेखिका ने यहां 'द्वारकानाथ ठाकुरेर' जीवनी भी उद्घृत की है जिसका आखिरी वाक्य है-'पूर्वजों को अच्छे या बुरे जिस कर्म के कारण से पीरल्ली उपाधि मिली थी मैं उसके कारण लज्जित क्यों होऊं?'

टैगोर के धर्मान्तरित पूर्वजों में से ही खां के परिवार की एक महिला प्रो. किश्वरजहां से अपनी मुलाकात का जिक्र डॉ. मजूमदार ने किया है। लेखिका के अनुसार इसी ठाकुर परिवार के पूर्वजों द्वारा इस्लाम धर्म कुबूल किये जाने की घटना का जिक्र 'द्वारकानाथ ठाकुरेर जीवनी' ही नहीं 'रवीन्द्र जीवनी' में भी मिलता है। रविबाबू के उक्त पूर्वजों ने 15वीं सदी में धर्म परिवर्तन किया था। तब बंगाल में इसी जातिवादी अपमान के चलते सामूहिक धर्मपरिवर्तन हुए थे।

आज जब हम राष्ट्रीय पैमाने पर रवीन्द्रनाथ टैगोर की डेढ़ सौंवीं जयन्ती मना रहे हैं, हमें रवीन्द्र साहित्य में इस जातिवाद के प्रभाव की छानबीन करनी चाहिए।



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