बिहार में राजनीतिक मंथन
बिहार विधानसभा चुनाव की तारीखें जैसे-जैसे करीब आ रही हैं, वहां के विभिन्न जाति समूह, हित समूह अपनी शक्तियों का अधिकतम उपयोग करने के लिए अपने को फिर से स्थापित करने लगे हैं।
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2024 के लोक सभा चुनाव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को जो खरोंच लगी थी, उसकी भरपाई हरियाणा, महाराष्ट्र के बाद दिल्ली विधानसभा के चुनाव में हो गई। अब सभी की नजर बिहार पर है जहां इस वर्ष विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। भाजपा एनडीए का प्रमुख घटक दल है। बिहार में वह पिछले दो दशकों से जनता दल (यू) की जूनियर पार्टनर के रूप में काम करती रही है, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि इस बार वह ड्राइविंग सीट पर रहना चाहती है।
भले ही चुनाव आयोग ने अभी बिहार में चुनाव की घोषणा नहीं की है, लेकिन राजनीतिक दलों की सक्रियता बढ़ गई है। मंगलवार को दिल्ली में महागठबंधन के घटक दल राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के नेताओं की मुलाकात हुई। उधर, पिछले महीने गृह मंत्री अमित शाह का दो दिवसीय बिहार दौरा हुआ था। इस महीने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बिहार जाने वाले हैं। राजनीतिक दलों और गठबंधनों की सक्रियता के बीच पूर्व केंद्रीय मंत्री पशुपति कुमार पारस के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी (पारस) एनडीए से अलग हो गई।
इस राजनीतिक घटनाक्रम का बिहार विधानसभा चुनाव पर क्या असर पड़ेगा अभी कहना मुश्किल है, लेकिन इतना कयास अवश्य लगाया जा रहा है कि बिहार की राजनीति में यह लहरें पैदा कर सकता है। लोगों को याद होगा कि राम विलास पासवान के निधन के बाद उनके भाई पशुपति पारस ने शतरंज की ऐसी बिसात बिछाई थी जिसमें चिराग पासवान उलझ गए थे। पार्टी के सभी सांसद चिराग से अलग हो गए थे।
लेकिन देश की राजनीति में हाशिये पर चले गए चिराग 2024 के लोक सभा चुनाव के बाद एक नई ताकत के रूप में उभरे हैं। भाजपा ने चिराग के गुट को लोक सभा की 5 सीटें दीं और पांचों प्रत्याशी चुनाव जीत गए। अब सवाल उठता है कि क्या राष्ट्रीय जनता दल के इशारे पर पशुपति पारस एनडीए से अलग हो गए। जाहिर है कि एनडीए में वह पूरी तरह अलग-थलग पड़ गए थे।
राजद, कांग्रेस और वामदलों के महागठबंधन में ऐसे दलित चेहरे की आवश्यकता है जो राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान रखता है। इस मायने में पशुपति पारस उपयुक्त नेता हो सकते हैं। अब देखना है कि आने वाले दिनों में बिहार की राजनीति में किस तरह की उथल-पुथल मचती है।
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