विरोध नहीं विचार
जम्मू-कश्मीर विधानसभा में वक्फ (संशोधन) अधिनियम को लेकर जो नजारा पेश आया उसमें एक साथ कई स्थितियां झलकती हैं।
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सत्तारूढ़ नेशनल कॉन्फ्रेंस के एक सदस्य ने स्थगन प्रस्ताव रखा कि सारा काम रोक कर वक्फ अधिनियम पर चर्चा की जाए और इसके विरोध में उसी तरह प्रस्ताव पारित किया जाए जिस तरह तमिलनाडु विधानसभा में किया गया। एक सदस्य ने कहा कि जब 6 फीसद मुस्लिम आबादी वाला तमिलनाडु वक्फ अधिनियम के खिलाफ प्रस्ताव पारित कर सकता है तो मुस्लिम बहुल आबादी वाला जम्मू-कश्मीर क्यों नहीं यानी यहां वक्फ अधिनियम का विरोध मुस्लिम दृष्टिकोण से है।
जब जम्मू-कश्मीर भाजपा के विधायक इस तरह के प्रस्ताव का विरोध करते हैं तब यह मामला सीधे-सीधे हिन्दू-मुसलमान का हो जाता है। लेकिन जब नेशनल कॉन्फ्रेंस द्वारा चयनित विधानसभा अध्यक्ष पार्टी के प्रस्ताव को मंजूरी नहीं देता और तमिलनाडु की तुलना पर कहता है कि इस समय यह मामला न्यायालय में विचाराधीन है जबकि तमिलनाडु में उस समय प्रस्ताव पास हुआ था जब मामला न्यायालय में नहीं गया था।
लेकिन पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) और नेशनल कॉन्फ्रेंस और कुछ निर्दलीय मुस्लिम विधायकों ने अध्यक्ष की बात को नकार दिया तो हंगामा यहां तक बढ़ा कि ‘भारत माता की जय’ और ‘अल्लाह हू अक्बर’ के नारे लगने लगे, धक्का-मुक्की हुई, हाथापाई भी हुई। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की कोशिश यह दिखाई दी कि वह वक्फ अधिनियम का विरोध करते हुए भी दिखाई दें, मगर वास्तव में विरोध नहीं करें।
जम्मू-कश्मीर की यह स्थिति मजहब, राजनीति और सत्ता के तेजी से बिगड़ते संतुलन का प्रतीक है। विधानसभा में जिस तरह की सांप्रदायिक कटुता दिखाई दी अगर वह सदन से बाहर प्रसारित होती है तो जम्मू-कश्मीर इस समय थोड़ी शांति से जी रहा है, फिर से उपद्रवी हालात की ओर मुड़ सकता है। ऐसी सूरत में मुख्यमंत्री उमर की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह इस मामले को यथाशीघ्र शांत करें और इसे अराजकवादी तत्वों के हाथ में पहुंचने से रोकें।
केंद्र सरकार को भी इस मामले को हलके में नहीं लेना चाहिए। भाजपा और मुस्लिम नेताओं की भी इसमें जिम्मेदारी बनती है कि इस मुद्दे पर वे लोगों को अनावश्यक तौर पर न भड़काएं क्योंकि शांति सभी के लिए हितकर है। इस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए।
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