चुनावी बिसात

Last Updated 08 Apr 2025 12:24:22 PM IST

तमिलों के प्रति अपना विशेष लगाव दिखाते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तमिल भाषा को दुनिया में ले जाने की बात उठाई। उन्होंने तमिल माध्यम से शिक्षा शिक्षा प्रदान करने की वकालत की ताकि गरीब छात्रों को भी लाभ मिल सके।


चुनावी बिसात

तमिलनाहु में पम्बन ब्रिज के उद्घाषण भाषण में उन्होंने राज्य के मुख्यमंत्री स्टालिन का नाम लिये बगैर कहा, तमिलनाडु के नेताओं के पत्रों में हस्ताक्षर अंग्रेजी में होते हैं। मोदी ने तंज करते हुए कहा, अगर हमें तमिल पर गर्व है तो मैं अनुरोध करूंगा कि कम से कम हस्ताक्षर तो तमिल में करें।

राज्य सरकार को पिछली सरकार की तुलना में अधिक धन आवंटित किये जाने पर मोदी ने कहा कि, कुछ लोगों को रोने की आदत होती है, वे रोते रहते हैं। स्टालिन की गैरहाजरी में ही राज्य में 8300 करोड़ रुपये की परियोजनाओं की आधारशिला भी रखी।

हालांकि स्टालिन के प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में शामिल न होने को भाजपा ने प्रधानमंत्री का अपमान बताया है। कहा जा सकता है कि नई शिक्षा नीति पर चल रही हिन्दी थोपने की बहस को लेकर मोदी ने परोक्ष में हस्ताक्षर वाली बात पर प्रहार किया। यह टिप्पणी केंद्र व तमिलनाडु सरकार के दरम्यान चल रहे त्रि-भाषा नीति को लेकर चल रहे विवाद को तूल भी दे सकती है। अगले साल राज्य में होने वाले चुनाव से इस घटनाक्रम को जोड़कर देखा जा सकता है।

भाजपा गठबंधन फिर से अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के साथ सरकार बनाने की पृष्ठभूमि तैयार कर रहा है। राज्य के चुनावी बिसात में पुराने मोहरे बिछाने की तैयारी के अतिरिक्त मोदी सरकार के पास बेहद सीमित मार्ग हैं। हालांकि मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री का इस्तकबाल करके बड़प्पन दिखाना शोभनीय होता। प्रधानमंत्री किसी दल का नहीं होता, वे अखंड भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं।

बजरिए तमिल भाषा में दर्शाये जा रहे इस अपनापे के खोखलेपन से स्थानीय जनता अच्छी तरह वाकिफ है। बेहतर हो कि यह हस्ताक्षर वाली सलाह सभी राज्यों को दी जाती। अपनी भाषा के प्रति लगाव दर्शाने का बेहतर तरीका तो यही हो सकता है कि इस तरह के पत्र-व्यवहार को स्थानीय भाषा में किया जाए। बहुभाषी अखंड देश होने का ख्याल रखा जाना केंद्र के लिए अतिआवश्यक है।

चुनावी सरगर्मी में हमें तमिल होने पर गर्व हो जाता है। जो मौसम बदलते ही कश्मीरी होने पर या बंगाली होने के गर्व में तब्दील होता रहता है। हालांकि देश की राजनीति ऐसे ही संवेदनशील मुद्दों के भरोसे चलती आ रही है, इसमें कुछ बदलता नहीं नजर आ रहा।



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