किसानों का अड़ना भी उचित नहीं
दिल्ली चलो मार्च कर रहे प्रदर्शनकारी किसानों के समूहों को तितर-बितर करने के लिए सुरक्षाकर्मियों ने आंसू गैस के गोले छोड़े और पानी की बौछार की जिसमें कुछ किसानों के घायल हो जाने के कारण मार्च को एक दिन के लिए स्थगित कर दिया गया।
किसानों का अड़ना भी उचित नहीं |
आरोप है कि सुरक्षाकर्मियों द्वारा चलाई गई रबर की गोली से एक किसान गंभीर रूप से घायल हो गया। प्रदर्शनकारियों को अंदेशा है कि बौछार के पानी में रसायन मिलाए गए थे। पंजाब के ढेरों किसान अपनी मांगों को लेकर शंभू बॉडर पर बैठे हैं।
किसानों ने कुंडी डाल कर बैरीकेड्स तोड़ने की कोशिशें कीं। 101 किसानों के इस जत्थे ने जबरन दिल्ली कूच करने का प्रयास किया। पुलिस का कहना है, दिल्ली आने की अनुमति नहीं होने के कारण उन्हें यह सख्ती मजबूरन करनी पड़ी। ये किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य समेत अन्य मांगों को लेकर लंबे समय से प्रदर्शन कर रहे हैं। अब वे 16 को दिल्ली कूच करेंगे।
संगठनों का कहना है फिर भी सरकार उनकी मांगें नहीं मानती तो वे 18 दिसम्बर को रेल रोको आंदोलन करेंगे जिसमें महिलाएं भी शामिल हो सकती हैं। किसानों को लेकर सरकार का रवैया लापरवाही भरा प्रतीत हो रहा है। संसद में शीतकालीन सत्र चालू है।
विचारणीय है कि इसमें भी पक्ष या विपक्ष के लिए यह गंभीर मुद्दा नहीं बन पाया। किसान सिर्फ वोट बैंक नहीं हैं बल्कि अर्थव्यवस्था की रीढ़ भी हैं। जिद पर अड़ने की बजाय सरकार को खुले दिल से किसानों से बात करनी चाहिए। यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि आंदोलनकारी किसानों में हरियाणा-पंजाब के बड़े किसान ही मुख्य रूप से शामिल हैं।
देश में उत्पादित अनाज का तकरीबन 12% यहां का कृषक ही पैदा करता है। नाबार्ड के अनुसार देश में साढ़े दस करोड़ से ज्यादा परिवार कृषि पर ही निर्भर हैं जो देश के कुल परिवारों का 48% है।
सच है कि देश के अन्य हिस्सों के किसान इतना उग्रतापूर्ण विरोध नहीं कर रहे हैं, इसलिए सरकार के कानों में जूं नहीं रेंग रही। बड़े किसानों का इस तरह अड़ना भी उचित नहीं कहा जा सकता। सरकार को बड़े और मझोले/छोटे किसानों का वर्गीकरण कर लाभों की व्यवस्था नये सिरे से करने के प्रयास करने चाहिए। सरकार कुछ भी जेब से नहीं देती। जो भी सुविधा या सहयोग देती है, उसमें करदाताओं का हिस्सा भी होता है। यह ख्याल रखा जाना जरूरी है।
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