मोदी का यह मौन
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दुनिया के शायद एकमात्र ऐसे नेता हैं जिनके किसी भी कृत्य पर, किसी भी वक्तव्य पर, किसी भी विचार और अभिव्यक्ति की किसी भी भंगिमा पर सामान्य प्रतिक्रिया नहीं होती।
मोदी का यह मौन |
प्रतिक्रियाओं की हिलोर उठती है जो एक तरफ इनके अनुयायियों, प्रशंसकों और भक्तों को उत्साहित, प्रफुल्लित और उमंगित कर देती है तो दूसरी ओर उनके निंदकों को चिढ़ा देती है, उनमें विरोध पैदा करती है और कभी-कभी दुर्दभनीय गुस्सा भी पैदा करती है।
शायद इस समय मोदी दुनिया के एकमात्र नेता होंगे जिनकी इतनी कटु आलोचना की गई हो। मोदी बड़े ठहरे हुए अंदाज में स्वयं को दी गई गालियों की संख्या और प्रकृति का जिक्र करते हैं और यह भी कहते हैं कि वह गालीप्रूफ हो चुके हैं। उनकी मुद्रा से लगता भी यही है कि वे सचमुच गालीप्रूफ हो चुके हैं।
अब चुनाव के दौर में एक-एक दिन में कई-कई रैलियों को अनथक संबोधित करने के बाद और विरोध तथा समर्थन की अनेकानेक प्रतिक्रिया उत्पन्न करने के बाद प्रचार की समाप्ति पर उन्होंने 48 घंटे मौन व्रत साधना कन्याकुमारी के विवेकानंद स्मारक पर करने का निर्णय लिया तो उनका यह भला सा लगने वाला कदम भी विपक्षियों को कुरेदे बिना नहीं रह सका।
बहुत से लोग जो प्रधानमंत्री को एक ही तर्ज पर, एक ही भाषा में, लगभग एक जैसी विषयवस्तु के ईर्द-गिर्द मोटे-तगड़े, कटु-कर्कश वाक प्रहार करते ऊब गए थे, उन्होंने सचमुच राहत की सांस ली कि कम-से-कम 48 घंटे उन्हें शांति के प्राप्त होंगे।
कायदे से विपक्ष को भी उस चुप्पी पर चैन की सांस लेनी चाहिए थी कि भले ही चुनाव के अंत में ही सही कुछ घंटे तो शांति मिल ही रही है, लेकिन ‘झड़े में कूड़ा’ फेंक दिया। कहा कि मोदी मौन रहकर कैमरे के जरिये अपना प्रचार कर रहे हैं, वो तप नहीं तमाशा कर रहे हैं और कुछ ने तो ये कह दिया कि हार के डर से भगवान की शरण में गए हैं।
बहरहाल, विपक्ष का जो काम है वह कर रहा है लेकिन देश के लोग कामना कर सकते हैं कि जिस शिला पर कभी विवेकानंद ने तपस्या की थी उसी तरह से मोदी भी ध्यान-साधना समाप्ति के पश्चात ऐसे भारत की संकल्पना लेकर लौटेंगे जो सर्वसमावेशी हो, जिसकी शैली भद्रतापूर्ण लोकतांत्रिक हो, जिसकी व्यावहारिकता निंदा, आलोचना, आरोप-प्रत्यारोप की न होकर परस्पर समझदारी, सहयोग और सहकार की हो। मोदी ऐसी साधना कर रहे हों तो सफल हों।
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