जले नहीं जीवन

Last Updated 09 Nov 2023 01:22:01 PM IST

प्रदूषण (Pollution) रोकने की जवाबदेही भी सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) पर डाल दी गई है। प्रशासनिक और राजनीतिक स्तर के इस काम की तरफ सरकारों का ध्यान तभी जाता है, जब उन्हें अदालत की फटकार लगती है।


जले नहीं जीवन

यह अक्टूबर-नवम्बर महीने का यह सालाना मंजर है। राजधानी और इसके आसपास के क्षेत्र और उसका आकाश एक विस्तृत ‘गैस चेम्बर’ में बदल जाता है। देखा जाए तो इसकी चिंता इस स्थिति के उत्पन्न होने देने के पहले ही पंजाब, हरियाणा, यूपी, दिल्ली और राजस्थान सरकारों को करनी चाहिए थी। इसका ऐहतियात बरतना चाहिए था। लेकिन हर साल उसके प्रयास इस दिशा में या तो होते ही नहीं या वे परिस्थितियों के लिहाज से पर्याप्त नहीं होते।

नतीजतन, हर साल लोगों का दम घुटवा कर उसकी आयु घटवा देते हैं। यह उनकी नियति बन चुकी है। इन्हीं अभागे लोगों की तरफ से अदालत को कहना पड़ा है कि ‘पराली जलाना तुरंत रोकें, लोगों को मरने नहीं दे सकते।’ अजीब बात है कि पराली को इतने सालों बाद भी उसका स्थायी प्रबंधन नहीं किया जा सका है। जो कि बहुत आसान है। खेतों में लगे उन अवशेषों को सूखा कर या फिर उनका कंपोस्टीकरण कर उर्वरक के रूप में उपयोग किया जा सकता है।

इसी आधार पर अन्य राज्यों में यह समस्या नहीं है। पंजाब-हरियाणा के किसानों को उन विकल्पों को आजमाने के लिए थोड़ी प्रेरणा और प्रोत्साहन राशि अगस्त-सितम्बर में वितरित करनी होगी। इसका राजधानी की आबोहवा पर अनुकूल प्रभाव पड़ेगा। वह जानलेवा नहीं बनेगी।

हालांकि आंकड़े बताते हैं कि पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने में कमी आई है। नासा का अध्ययन यही कहता है। फिर क्या वजह है कि सांसों का फूलना और आंखों में जलन का स्तर ज्यों का त्यों है? मौसम इसकी वजह है। अगर हवा 15-20 किलोमीटर प्रति घंटे से बहती, जो अभी 5 किमी की गति से बह रही है, तो यह जहरीला कुहासा ही न बनता। ऐसा हो सकता था। पर मूल सवाल पराली के कम या अधिक मात्रा में जलने का नहीं है। प्रश्न है कि वह जले ही क्यों?

उसे एकदम निर्विकल्प कैसे छोड़ा जा सकता है, वह भी लाखों-करोड़ों जिंदगी की कीमत पर? जो लोग इसका दंश प्रतिवर्ष झेलने के लिए शापित हैं, वे यह जरूर चाहते होंगे कि सर्वोच्च अदालत अपनी इस चेतावनी पर एक बार जरूर अमल करे-‘हमारा बुलडोजर चलेगा तो रुकेगा नहीं।’ किसानों को और उनके वोटों पर बनने वाली सरकारें तय करे कि उनके फायदे के लिए दूसरा बेमौत क्यों मरे? अब बहुत हो चुका।



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