फैसलों की खींचतान में गर्भणी
सर्वोच्च अदालत के दो जजों ने गर्भपात के मामले में अलग-अलग फैसला सुनाया। दो जजों वाली पीठ ने विवाहिता को 26 हफ्तों के गर्भ को समाप्त करने के आदेश को वापिस लेने संबंधी केंद्र की याचिका पर यह फैसला दिया।
फैसलों की खींचतान में गर्भणी |
पीठ ने कहा कि वे 27 वर्षीय स्त्री को गर्भपात की अनुमति नहीं दे सकते, क्योंकि पहला आदेश सोच-समझ कर दिया गया था। सरकार को प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के समक्ष याचिका देने को कहा ताकि वे उचित पीठ के समक्ष इसे भेज सकें। शीर्ष अदालत ने नौ अक्टूबर को महिला को गर्भावस्था की चिकित्सकीय समाप्ति की अनुमति दी थी। महिला अवसादग्रस्त है तथा भावनात्मक, आर्थिक व मानसिक तौर पर तीसरे बच्चे को पालने में सक्षम नहीं है।
अदालत ने नई चिकित्सकीय रिपोर्ट पर वेदना व्यक्त की, जिसमें भ्रूण के जीवित रहने की प्रबल संभावना जताई थी। पीठ ने कहा, कौन सी अदालत कहेगी, भ्रूण की हृदयगति बंद कर दो। वे डॉक्टरों की रिपोर्ट से नाखुश थे और पूछा वे पहले की रिपोर्ट में इतने अस्पष्ट क्यों थे। इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि यह चिकित्सकीय लापरवाही संबंधी दिक्कत हो। दुखद तथ्य तो यही है कि इस सारे सरकारी निर्णय, कानून व चिकित्सकीय खींचतान में गर्भणी का जीवन संकट में आ सकता है।
वह मानसिक व दैहिक तौर पर किस कदर त्रस्त होगी, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। विचारणीय है अपने देश में गैरकानूनी गर्भपात रोकने में सरकारी तंत्र पूरी तरह असफल है। कानूनी झंझटों व डॉक्टरों की मोटी फीस चुकाने में अक्षम लोगों के पास झोलाछाप चिकित्सकों, दाइयों व अप्रशिक्षित नसरे के भरोसे जान जोखिम में डालने के सिवा कोई चारा ही नहीं होता। स्त्री को बच्चा जनना है या किसी कारण से गर्भ से निजात पाना चाहती है, इसके लिए उसे कई दरवाजे खटखटाने पड़ते हैं।
जिन मामलों में अविवाहिताओं या यौन शोषण के कारण कम उम्र में अनचाहा गर्भ ठहर जाता है, उनके लिए भी गर्भपात कराना आसान नहीं होता। उस पर अदालत के फैसलों को लेकर इस दशा में उस पर पड़ने वाले मानसिक दबाव का ख्याल रखना भी जरूरी है। साथ ही सरकार को इन विशेष परिस्थितियों के लिए कोई व्यवस्था देने के पक्ष में भी लोचदार नियम बनाने के विषय में विचार करना चाहिए।
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