लोकतांत्रिक संवाद में हल
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संदेश दिया कि किसान नेता जब चाहें एक फोन कॉल करके बात कर सकते हैं। किसानों के धरने को दो महीने के करीब हो गए हैं।
लोकतांत्रिक संवाद में हल |
26 जनवरी को कुछ अप्रिय घटनाओं से किसान आंदोलन की दिशा और दशा पर भी प्रश्नचिह्न लगा दिया। किसानों के आंदोलन को राजनीतिक रंग तो अब पूरा मिल ही गया है। राकेश टिकैत के मंच से अब अजित सिंह को जिताने की बात भी हो चुकी है, तो इतना तो साफ है कि यह आंदोलन अब राजनीतिक हो चला है। इस देश में कोई भी बड़ा आंदोलन लंबे समय तक अराजनीतिक नहीं रह सकता। आंदोलन का रु ख लगातार राजनीतिक होता जाएगा, तो यह अपनी शुचिता धीमे धीमे खोता जाएगा और इसकी धार कमजोर होती जाएगी। केंद्र सरकार ने आश्वासन दिया है कि कृषि कानूनों को कुछ समय के लिए टाला जाएगा और इस पर विचार विमर्श करके आवश्यक बदलाव के बाद लागू किया जाएगा। किसानों को संवाद से नहीं घबराना चाहिए और खुलकर और पुरजोर तरीके से उन खामियों को रेखांकित करना चाहिए कि क्यों ये कानून अवांछनीय हैं।
संसद से पारित कानूनों को सिर्फ जिद और धरने के भय से वापस करवाने की इच्छा एक हद के बाद अलोकतांत्रिक हो जाती है। किसान संगठनों को समझना चाहिए कि अगर मामला लंबा खिंचा, तो अप्रिय घटनाओं को टाला नहीं जा सकता है। लाखों की भीड़ में, जहां नेतृत्व की कमान कई लोगों के हाथों में है, शरारती तत्वों के लिए कुछ करना मुश्किल नहीं होता। लोकतंत्र में संवाद से हल निकलें, तो सभी के हित में होता है। यह ठीक है कि केंद्र सरकार की बात से असहमति का हक सबका है, पर इसका मतलब यह नहीं है कि धरना देकर किसी शहर को घेर लिया जाए। सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त समिति के समक्ष प्रस्तुत होने में भी किसान नेताओं ने अनिच्छा जताई है। सरकार से सिर्फ अपनी जिद पर अड़े रहना, सुप्रीम कोर्ट की बात ना सुनना-यह सब सकारात्मक नहीं है और किसानों की तरफ से यह संदेश ना जाए कि उन्हें सिर्फ अपनी जिद के अलावा कुछ और चिंता नहीं है। इसलिए सरकार के साथ किसानों को बात शुरू करनी चाहिए और साफ बताना चाहिए पूरे देश को कानूनों में क्या क्या खराब है। कानून वापसी की मांग अब निर्थक है, क्योंकि केंद्र सरकार राष्ट्रपति के अभिभाषण में इनकी ताईद कराकर साफ कर चुकी है कि कानून वापस नहीं होंगे, पर संवाद और अदालत से निकले हल का सम्मान होगा।
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