मानसिक सबलता : मन का स्वस्थ रहना ज्यादा जरूरी

Last Updated 08 Oct 2023 01:45:12 PM IST

युवाल नोआ हरारी की सेपियन्स में जिस मानव जाति का संक्षिप्त इतिहास कहा गया है, वह दरअसल मानसिक सबलता की ही यात्रा है, उसका दर्शन है।


मानसिक सबलता : मन का स्वस्थ रहना ज्यादा जरूरी

निस्संदेह यह शरीर के समानान्तर एक जागरूक होती चेतना के विकास से जुड़ा है। दोनों अनुपूरक हैं। वे अलग होकर अस्वस्थ हो जाएंगे और मानव सभ्यता के संतुलित विकास के वाहक नहीं हो पाएंगे। यह सफर शरीर और मन को संभाल कर हर क्षण की चुनौतियों और उनके प्रभाव-दुष्प्रभावों से अपने को साबुत बचा ले जाते हुए उसे जारी रखने का है। हमारे सामने यह जो खुली और रोज बनती दुनिया है, उसमें अपने को बनाए रखने का यही रवायत है। युवाल यरुशलम के हिब्रू विश्वविद्यालय में विश्व इतिहास के प्रोफेसर हैं।

आधुनिक जीवन, जो औद्योगिक प्रगति के पहिए पर चढ़कर आया, उसने एक पल की धुरी पर बहुत सारी गतिविधियों को एक साथ करने की होड़ पैदा किया है। वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकियों के विकास के साथ आर्थिक अवसरों के नए-नए खुलते दरवाजों ने मानव जीवन को अर्थवान बनाया तो इसने लोगों के रहन-सहन, खान-पान और सोच-विचार तक को बदलने पर भी जोर दिया है। इसने क्रिया-कलापों पर चौतरफा दबाव बढ़ा दिया है। यह समय से सहस्रबाहु होने की अपेक्षा है-जो असंभव है। पर इससे मनुष्य के जीने की पूरी शैली ही बदल  गई है। नतीजतन शरीर और मन का एक साथ ध्यान में एक अलगाव हो गया, जिससे सामने आने वाली हर स्थिति-परिस्थिति के प्रति होने वाली मनुष्य की प्रतिक्रियाओं में एक विसंगति पैदा हो गई। इसने व्यक्ति में मानसिक उद्वेलन पैदा किया, जिसकी प्रतिक्रिया लोगों में तनाव, चिंता, बेचैनी, उदासी, झुंझलाहट, गुस्सा, अकेलापन, अवसाद, भय, आशंका, अनिद्रा, उन्माद, पागलपन से लेकर व्यक्तित्व के विभाजन तक हुई। तन और मन को एक करने वाला बंधन कमजोर पड़कर टूट गया, जिससे शारीरिक और मानसिक विकार पैदा हुआ। हालांकि शरीर के रोग मानसिक विकार के ही स्थूल रूप होते हैं।

इन मानसिक विकारों से आज का भारतीय मानव समाज नहीं बल्कि विश्व समाज के करोड़ों प्राणी पीड़ित हो गए हैं। इसकी भयावता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि देश की 14 फीसद आबादी आज मानसिक व्याधियों से ग्रस्त है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि अगले 10 वष्रो में यह तादाद बढ़ कर 20 फीसद हो सकती है। कोरोना के दौरान उपजी असामान्य परिस्थितियों ने भी एकदम से मानसिक विकार बढ़ाने का काम किया है। इसके बाद से केवल महानगर, नगर ही नहीं जिले और सबडिविजन स्तर के शहरों में भी मानसिक विकारग्रस्त लोगों की तादाद में भारी बढ़ोतरी हुई है। विकारों का आसान शिकार वह तबका है, जो अतिशय प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण में काम करता है, जहां एक डेडलाइन हर समय लटकी रहती है।

भारत या दुनिया में शायद ही कोई कार्य-व्यवसाय बचा होगा, जहां तनाव न हो। वह तबका भी इसका आसान शिकार बन गया है, जिसकी हर समय प्रतियोगिता से ठनी रहती है-ऐसे 43 फीसद छात्र मानसिक रूप से अस्वस्थ हैं। कम समय में क्षमता से अधिक हासिल कर नेम-फेम बनाने का तनाव ले लिया गया है पर उसमें एक संतुलन कैसे किया जाए यह नहीं सीखा गया है। जो लोग अपनी क्षमता और उसके मुताबिक परिणाम की संगति बिठा लेते हैं, वहां मानसिक व्याधियों के लक्षण नहीं हैं या कम हैं। इसलिए इस रोग के शमन का इंतजाम और इलाज जल्द न किया गया तो यह  संक्रामक हो सकता है, लेकिन यह काम व्यक्ति, समाज और सरकार के तीनों स्तर पर करना पड़ेगा। व्यक्ति के स्तर पर शारीरिक और मानसिक सक्रियता लाने, सामाजिक स्तर पर मेलजोल बढ़ाने, अपनी अनुभूतियों को साझा करने, खेल, संगीत या कला में रु चि लेनी होगी।

इसके साथ, अपनी जीवन शैली में सुधार करना, उसे नियमित बनाना होगा-इसमें खानपान से लेकर सकारात्मक सोच-विचार तक शामिल है। इससे लोगों को सकारात्मक भावनाओं का अनुभव करने और उनके मूड में सुधार करने में मदद मिल सकती है। व्यायाम के साथ योग बहुत जरूरी है। विज्ञान भी मानसिक विकारों के इलाज में योग के प्रभाव को असंदिग्ध माना है। इसी के साथ आध्यात्मिक भावनाओं को भी जीवनचर्या में शामिल किया जा सकता है। इसके साथ ही, पीड़ितों को आत्मसम्मान का भाव रखना है। इसे हमारे व्यक्तिगत गुणों और गुणों के संबंध में हमारी मान्यताओं के कुल योग के रूप में देखा जा सकता है। आत्म-स्वीकृति तब होती है ,जब हमारे पास स्वस्थ आत्म-सम्मान और आत्म-अवधारणा दोनों होते हैं। दूसरे शब्दों में, हम स्वयं को सकारात्मक रूप से देखते हैं और अपना मूल्य समझते हैं। इसके साथ ही, घर-परिवार और समाज का यह सहयोग चाहिए कि वे मानसिक संताप झेल रहे व्यक्ति को मानवीय आधार पर समझें। उनकी उपेक्षा करने या कलंक मानने के बजाए उनका इलाज कराएं। उन्हें अनुकूलन हासिल करने के उनके प्रयासों का समर्थन करें। परिवार की यह प्राथमिक जिम्मेदारी है कि वे ऐसे परिजन को अकेला न छोड़ें।

सरकारी स्तर पर तो व्यापक एवं बड़े प्रयास की जरूरत है। हालांकि सरकार ने 2017 में अधिनियम लाकर मानसिक रूप से पीड़ित व्यक्ति के हित में सम्मानजनक कदम उठाए हैं। पर इस दिशा में उसे बहुत कुछ करना बाकी है। पहली बात कि उसे यह समझना होगा कि आधुनिक जीवन में जीवनशैली से संबंधित इस बीमारी को रोकने के लिए पहले तो उसे डॉक्टरों और अस्पतालों की संख्या बढ़ानी होगी। दुर्भाग्य से अन्य देशों की तुलना में भारत मानसिक स्वास्थ्य की दिशा में किए जा रहे प्रयासों में अभी पीछे है। दुनिया के ज्यादातर देश अपने सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 5-18 फीसद तक मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च कर देते हैं, जबकि भारत का इस दिशा में खर्च 0.05 फीसद ही है। इसके अलावा, भारत में मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की कमी भी बड़ी चुनौती है। 1.3 बिलियन (130 करोड़) की आबादी के लिए मात्र 10,000 ही मान्यताप्राप्त मनोचिकित्सक हैं। इनमें भी ज्यादातर लोग शहरी क्षेत्रों में हैं। जाहिर है कि इसके लिए अधिक संसाधन चाहिए होंगे, जो फिलहाल नहीं दिख रहे। ऐसा होने में अभी बहुत विलंब होना है। हालांकि स्वस्थ नागरिक उसे जीडीपी को समृद्ध करने में योगदान करेंगे।

इन सबका ध्यान रहे तो सरकारी स्तर पर नीतियां भी बनेगी और उनका क्रियान्वयन भी होगा। यह होने तक भारत को और दुनिया यदि चाहे तो पतंजलि के अष्टांग योग को अपना सकता है, जो इसके जरिए मन को साध कर शरीर को नीरोग बनाने और इस तरह जीवन को संवारने का एक निरापद रास्ता था। आपाधापी वाले इस दौर में यह एक प्रामाणिक चिकित्सिकीय नुस्खा बना हुआ है-योग भगाए रोग। यह मन को इस स्तर तक सबल कर देता है कि व्याधियां समय के साथ कमजोर हो कर छूट जाती हैं। लौटना मूल की तरफ होगा। प्रदत्त समय में ही अपनी इच्छाओं की सूची बनानी होगी। अपनी हसरतों को हैसियत-शारीरिक,मानसिक, आर्थिक और सामाजिक के कद का रखना होगा-यह पहली शर्त होगी। स्वस्थ विचारों के साथ मानवीय क्रिया-कलापों को साधना होगा। सपने देखना व्याधि नहीं है, पर अपने पंखों को तौल कर। परिकल्पना ही विकास की मूल है। इसके निषेध से बात नहीं बनेगी। इनके साथ अपनी सीमा का ख्याल रखें तो इसकी जरूरत नहीं पड़ेगी कि 10 अक्टू.मानसिक व्याधि के बारे में जागरूक करने की तिथि है।

डॉ. विजय राय


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