चीता को भारत लाकर बसाने की परियोजना अधर में
केंद्र की ओर से अंतिम मंजूरी न मिल पाने से चीता को दोबारा बसाने की 300 करोड़ रूपये की चीता परियोजना लटकी हुई नजर आ रही है.
चीता(फाइल फोटो) |
हालांकि विशेषज्ञों का मानना हैं कि चीता को भारत में दोबारा बसाये जाने से एक साथ दो मकसद पूरे होंगे. एक तो लुप्त होने से पहले के इसके प्रतिनिधित्व वाले इलाकों के पारिस्थितिकी तंत्र में इसकी भूमिका फिर से स्थापित हो जायेगी जबकि दूसरा, अस्तित्व कायम रखने के लिये जूझ रही प्रजातियों के संरक्षण के लिये दुनिया भर में चल रहे प्रयासों को भी इससे बढ़ावा मिलेगा.
भारत में चीता का इतिहास प्राचीन समय से ही काफी रोचक रहा हैं. भारत में चीता की विलुप्ति पर उपलब्ध एक किताब के अनुसार, 800 साल पहले चीता का शिकार करना भारत में राजसी और दरबारी जीवन की शान माना जाया करता था. बाद में मुस्लिम शासकों ने भी इस परंपरा को आगे बढ़ाया और मुगलों के समय में तो यह अपने चरम पर पहुंच गयी. किताबों में बताया गया हैं कि केवल अकबर ने ही अपने शासनकाल के दौरान 9000 चीता इकट्ठे किये.
विशेषज्ञों का कहना हैं. कि बाद में ब्रिटिश अधिकारियों और भारतीयों ने चीता का अंधाधुंध शिकार किया और आजादी मिलने के बाद यह शानदार जानवर विलुप्त हो गया.
छत्तीसगढ़ में तत्कालीन कोरिया राज्य के महाराजा रामानुज प्रताप सिंहदेव ने वर्ष 1947 में अपनी बंदूक की गोलियों से तीन चीतों को मौत की नींद सुलाकर दुनिया के सबसे तेज दौड़ने वाले जानवर का भारत की धरती से नामो-निशान मिटा दिया. हालांकि इसके बाद भी कई जगहों से चीता को देखे जाने की खबरें आयीं, लेकिन कहीं भी इनकी पुष्टि नहीं हो पायी और देश में चीता इतिहास के पन्नों में ही सिमट कर रह गया.
चीता को देश में लाकर दोबारा जंगलों को इनसे आबाद करने की वन्यजीव विशेषज्ञों की योजना हालांकि तब वास्तविकता लगने लगी जब कुछ वर्ष पहले वन एवं पर्यावरण मंत्रालय संभालने के दौरान केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने इसमें खासी रूचि ली.
एक चीता फाउंडेशन की मदद से लगभग मुफ्त में नामीबिया से आने वाले चीतों को दोबारा बसाने के लिये वन्य जीव वैज्ञानिकों ने तीन जगहें भी पसंद कर ली थीं.
चीता को देश में दोबारा बसाने के पीछे ठोस वजहें हैं. देहरादून स्थित भारतीय वन्यजीव संस्थान के वैज्ञानिक डा. वाईवी झाला का कहना है कि इस मांसाहारी प्राणी को देश में बसाना अस्तित्व के खतरे से जूझ रहे इस जानवर के संरक्षण की एक रणनीति होने के साथ ही इससे पारिस्थितिकी तंत्र के उसके स्वाभाविक रूप में काम करने का मार्ग महंगा होगा.
चीता परियोजना की देखरेख कर रहे डा. झाला का मानना हैं कि भारत के पास वह आर्थिक क्षमता हैं कि वह पारिस्थिति असंतुलन के कारण खोई हुई विरासत को दोबारा स्थापित कर सके. इन सभी बातों के मद्देनजर वर्ष 2009 में दुनिया भर के विशेषज्ञों की एक बैठक राजस्थान के गजनेर में बुलाई गयी जहां चीता को दोबारा बसाने के लिये जगहों का चयन करने के बारे में सहमति बनी.
उस समय रमेश ने 'भारतीय वन्यजीव संस्थान' और 'वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट आफ इंडिया' को चीता के लिये उपयुक्त जगहों का चयन करने और परियोजना की दीर्घकालीन उपयोगिता का आकलन करने के निर्देश दिये. गहन छानबीन के बाद, मध्यप्रदेश में कुनो-पालपुर वन्यजीव अभयारण्य, राजस्थान के जैसलमेर में शाहगढ़ और मध्यप्रदेश के ही सागर जिले में नौरादेही, तीन जगहें अंतिम रूप से चुनी गयी. इनमें से भी विशेषज्ञों ने राजस्थान के शाहगढ़ को सबसे ज्यादा उपयुक्त पाया लेकिन राजस्थान सरकार अब तक शाहगढ़ के आसपास के इलाकों में स्थित गैस और तेल के भंडार को देखते हुए उसे चीता को बसाने हेतु देने के लिये आनाकानी कर रही हैं.
विशेषज्ञों का हालांकि कहना हैं कि राजस्थान सरकार को मनाया जाना चाहिये क्योंकि वहां फिलहाल कम से कम 15 चीता रखे जा सकते हैं और बाद में इनकी संख्या 25 और बढ़ाई जा सकती हैं. जहां तक कूनो-पालपुर की बात हैं, वहां पहले ही गिर के जंगलों से शेरों को लाकर बसाये जाने का मामला उच्चतम न्यायालय के विचाराधीन है.
इस संबंध में डा. झाला ने कहा कि जब तक उच्चतम न्यायालय अपना अंतिम निर्णय नहीं सुना देता, तब तक कुनो-पालपुर में चीता को बसाने पर विचार नहीं किया जा सकता. लेकिन हम चाहते हैं कि शाहगढ़ और नौरादेही में चरणबद्ध तरीके से चीतों को बसाया जाये. रमेश के ग्रामीण विकास मंत्रालय से हटने के बाद हालांकि अब इस संबंध में अंतिम निर्णय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन को लेना है.
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