अगर नीतीश कुमार NDA में फिर आए, तो चिराग,जीतन और उपेंद्र कुशवाहा की बढ़ेंगी मुशिबतें !

Last Updated 29 Dec 2023 05:25:20 PM IST

लोकसभा चुनाव से पहले देश की किसी भी पार्टी में कुछ भी हो सकता है। कोई भी नेता एक पार्टी को छोड़कर दूसरी पार्टी का दामन थाम सकता है। राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है, लेकिन कुछ बदलाव ऐसे होते हैं, जो आसानी से हजम नहीं होते।


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बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश  कुमार को लेकर एक बार फिर से एनडीए में जाने की जो चर्चाएं हो रही है, वह एक ऐसी ही संभावित राजनैतिक घटना हो सकती है, जो शायद ही आसानी से हजम हो। हो सकता है कि ऐसा हो भी जाए ,क्योंकि नीतीश कुमार चौंकाने वाले फैसले लेने में माहिर हैं। अगर ऐसा होता है तो बिहार के कई छोटे-छोटे दलों के नेताओं की कुर्बानी ली जा सकती है। अगर नीतीश कुमार पुनः एनडीए में जाते हैं तो हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा के अध्यक्ष जीतन राम मांझी , लोजपा (रामबिलास पासवान) के अध्यक्ष चिराग पासवान ,उपेंद्र कुशवाहा जैसे नेताओं के अरमानों पर पानी फिर सकता है। क्योंकि इन तीनों नेताओं ने नीतीश कुमार पर पिछले कुछ महीनों में खूब हमले बोले हैं।

ऐसे में बीजेपी अगर नीतीश कुमार को फिर से एनडीए में शामिल करती है तो अपने नफा-नुक्सान का आंकलन जरूर करेगी। उस नफा-नुकसान के तराजू पर अगर दोनों बैठते हैं तो यह तय है कि इस बार भाजपा का पलड़ा जरूर भारी रहेगा। आज हम आपको बताएंगे कि अगर नीतीश कुमार फिर से एनडीए में शामिल होते हैं तो बाकी नेताओं के साथ-साथ उन्हें क्या-क्या कुर्बानी देनी पड़ सकती है। हालांकि इस तरह की चर्चाएं, अफवाह भी हो सकती हैं,  लेकिन नीतीश कुमार को लेकर ऐसी चर्चा क्यों हुई? आगे बढ़ने से पहले आइए, इसके बारे में बताते हैं। दरअसल इण्डिया गठबंधन की चौथी बैठक में गठबंधन की तरफ से मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम प्रधानमंत्री पद के रूप में जब आगे बढ़ाया गया तो शायद नीतीश कुमार को बूरा लग गया था।

उसके बाद ही उन्होंने अपनी पार्टी की एक बड़ी बैठक बुला ली थी। उसी बैठक के बाद यह चर्चा होने लगी थी कि नीतीश कुमार नाराज हैं, और कभी भी एनडीए का दामन थाम सकते हैं। खैर यह तो हो गई उस चर्चा के पीछे की वजहों की बातें। अब बात करते हैं कि नीतीश कुमार ऐसा करते हैं तो आगे क्या-क्या हो सकता है। वैसे इस बार नीतीश कुमार के लिए भाजपा या एनडीए में वापसी इतनी आसान नहीं है। सबसे पहली बात तो यह है कि इस बार बीजेपी नीतीश कुमार को तभी अपने साथ लेने की कोशिश करेगी, जब वह मुख्यमंत्री का पद छोड़ेंगे। यानि अगर वह बीजेपी के साथ आते हैं तो बिहार का मुख्यमंत्री  बीजेपी कोटे से ही कोई बनेगा। ऐसा संभवतःनीतीश  कुमार नहीं चाहेंगे, क्योंकि उन्हें अच्छी तरह से पता है कि  अगर वो मुख्यमंत्री के पद पर नहीं रहेंगे तो शायद आज उनके जितने समर्थक हैं, उनमें से अधिकांश उनका दामन छोड़ सकते हैं।

मुख्यमंत्री न रहते हुए अगर उनकी पार्टी लोकसभा चुनावों में जाती है तो संभव है कि उनकी पार्टी के उतने उम्मीदवार चुनाव न जीत पाएं, जितना 2019 के लोकसभा चुनाव में जीते थे। ऐसी स्थिति में संभव है कि  राष्ट्रीय जनता दल के ज्यादा उम्मीदवार चुनाव जीत जाएं, क्योंकि आज भी बिहार में जातिगत समीकरणों पर चुनाव होने की बात से इंकार नहीं किया जा सकता, और देखा जाए तो बिहार में राजद का जातिगत समीकरण सबसे मजबूत है। दूसरी तरफ अगर नीतीश कुमार एनडीए के साथ जाते हैं तो बिहार के छोटे-छोटे दलों की मुसीबतें जरूर बढ़ जायेंगीं,जो आज बीजेपी के साथ खड़े हैं। मसलन हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के नेता जीतन राम मांझी ,जो बहुत पहले, इस उम्मीद में बीजेपी के साथ चले गए थे कि बीजेपी उन्हें ना सिर्फ़ सम्मानजनक सीटें देगी बल्कि उन्हें भी किसी संवैधानिक पद पर बैठा जा सकती है।

नीतीश कुमार की एनडीए में वापसी पर उन्हें जोर का झटका जरूर लगेगा , क्योंकि नीतीश कुमार अगर मुख्यमंत्री पद छोड़कर एनडीए में जाते हैं तो कुछ शर्तों के साथ ही जायेंगे, जिनमें एक शर्त छोटे दलों को लेकर भी रहेगी। इसी तरह चिराग पासवान भी  किनारे लगाए जा सकते हैं, क्योंकि चिराग भी नीतीश कुमार पर गाहे-बगाहे टिप्पणी करते ही रहते हैं। अब रही बात राष्ट्रीय  लोकसमता पार्टी के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा की , तो वह भी आगामी लोकसभा चुनाव में अपने आपको ठगा मह्शूश करने पर मजबूर हो सकते हैं।

यहां बता दें कि  2009 के लोकसभा चुनाव में जदयू ने अकेले चुनाव लड़ा था,तब उसे दो सीटें हासिल हुईं थीं,लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ न सिर्फ चुनाव लड़ा था बल्कि उनकी पार्टी और बीजेपी, दोनों ने बराबर-बराबर सीटों पर अपने-अपने कैंडिडेट उतारे थे, नतीजा रहा कि भाजपा जहां 17 सीटों पर चुनाव जीती थी, वहीं जदयू के खाते में 16 सीटें आईं थीं। नीतीश कुमार भले ही मल्लिकार्जुन खड़गे को पीएम कैंडिडेट बनाए जाने की मांग पर नाराज हो गए हों , भले ही वो अपनी नाराजगी व्यक्त न कर पा रहे हों, लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं कि वह राजद से अलग हो रहे हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि अलग होना आसान तो है लेकिन इस बार अपनी स्थिति पहले जैसी ही मजबूत बनाए रखना उतना आसान नहीं होने वाला है।

 

शंकर जी विश्वकर्मा
नई दिल्ली


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