सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह मामला संविधान पीठ के हवाले किया, केंद्र का अनुरोध खारिज, औपनिवेशिक काल के कानून की वैधता पर होगा विचार

Last Updated 13 Sep 2023 08:55:10 AM IST

सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने भारतीय दंड संहिता के तहत औपनिवेशिक काल के राजद्रोह कानून संबंधी प्रावधानों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को मंगलवार को 5 न्यायाधीशों की संविधान पीठ के पास भेज दिया।


सुप्रीम कोर्ट

इससे एक महीने पहले ही केंद्र सरकार ने औपनिवेशिक काल के इन कानूनों को बदलने की पहल करते हुए दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की जगह लेने के लिए संसद में विधेयक पेश किए थे। इनमें राजद्रोह कानून को रद्द करने की बात की गई है।
प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुआई वाली पीठ ने इस आधार पर वृहद पीठ को मामला सौंपने का फैसला टालने के केंद्र के अनुरोध को खारिज कर दिया कि संसद दंड संहिता के प्रावधानों को फिर से लागू कर रही है और विधेयक को स्थाई समिति के समक्ष रखा गया है।
न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा भी इस पीठ में शामिल थे। पीठ ने कहा, ‘हम इन मामलों में संवैधानिक चुनौती पर सुनवाई को टालने का अनुरोध कई कारणों से स्वीकार करने के इच्छुक नहीं है।’ पीठ ने कहा कि आईपीसी की धारा 124ए (राजद्रोह) कानून की किताब में बरकरार है और नया विधेयक भले ही कानून बन जाए, तो भी यह धारणा है कि कोई भी नया दंडात्मक कानून पूर्वव्यापी प्रभाव से नहीं, बल्कि भविष्य में लागू होगा। उसने कहा कि जब तक 124ए कानून बना रहता है, उस बीच शुरू किए गए अभियोजन की वैधता का उस आधार पर आकलन करना होगा।
अदालत ने कहा कि केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य संबंधी 1962 के फैसले में आईपीसी की धारा 124ए की संवैधानिक वैधता की समीक्षा शीर्ष अदालत ने इस दलील के आधार पर की थी कि यह संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के अनुसार नहीं है। अनुच्छेद 19 (1) (ए) भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित है। वर्ष 1962 के फैसले में धारा 124ए की संवैधानिकता को बरकरार रखा गया था और इसे अनुच्छेद 19(1)(ए) के अनुरूप माना गया था। पीठ ने कहा कि उस समय इस आधार पर कोई चुनौती नहीं दी गई थी कि आईपीसी की धारा 124ए संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) का उल्लंघन करती है। पीठ ने याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व कर रहे वकील की इस दलील पर गौर किया कि आईपीसी की धारा 124ए की वैधता की फिर से समीक्षा करना जरूरी होगा, क्योंकि प्रावधान की समीक्षा केवल संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के संबंध में की गई थी।
पीठ ने अपने पंजीयन कार्यालय को प्रधान न्यायाधीश के सामने कागजात पेश करने का निर्देश दिया ताकि पांच न्यायाधीशों की पीठ के गठन के लिए प्रशासनिक स्तर पर उचित निर्णय लिया जा सके। इससे पहले न्यायालय ने इन याचिकाओं पर सुनवाई केंद्र के यह कहने के बाद बीते पहली मई को टाल दी थी कि सरकार दंडात्मक प्रावधान की दोबारा समीक्षा पर परामर्श के अग्रिम चरण में है।
इसके बाद केंद्र सरकार ने 11 अगस्त को औपनिवेशिक काल के इन कानूनों को बदलने के लिए ऐतिहासिक कदम उठाते हुए आईपीसी, सीआरपीसी और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की जगह लेने के लिए लोकसभा में तीन नए विधेयक पेश किए। इसमें राजद्रोह कानून को रद्द करने और अपराध की व्यापक परिभाषा के साथ नए प्रावधान लागू करने की बात की गई है। शीर्ष अदालत ने पिछले साल 11 मई को एक ऐतिहासिक आदेश में इस दंडात्मक कानून पर तब तक के लिए रोक लगा दी थी जब तक कि ‘उचित’ सरकारी मंच इसकी समीक्षा नहीं करता। उसने केंद्र और राज्यों को इस कानून के तहत कोई नई प्राथमिकी दर्ज नहीं करने का निर्देश दिया था। शीर्ष अदालत ने व्यवस्था दी थी कि देश भर में राजद्रोह कानून के तहत जारी जांच, लंबित मुकदमों और सभी संबंधित कार्यवाहियों पर भी रोक रहेगी। ‘सरकार के प्रति असंतोष’ पैदा करने से संबंधित राजद्रोह कानून के तहत अधिकतम आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधान है। इसे स्वतंत्रता से 57 साल पहले और भारतीय दंड संहिता के अस्तित्व में आने के लगभग 30 साल बाद 1890 में लाया गया था।

समयलाइव डेस्क
नई दिल्ली


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment