सहकारी समितियां : नियम तय करने का संशोधन असंवैधानिक करार
सुप्रीम कोर्ट ने 97वें संशोधन के उस भाग को निरस्त कर दिया जिसमें राज्य सरकारों को प्रादेशिक सहकारी समितियों के लिए नियमावली तय करने का अधिकार छीन लिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट |
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सहकारिता राज्य का विषय है अर केन्द्र सरकार को संसद से कानून पारित करने के बाद इसे देश के आधे राज्यों की विधानसभाओं से स्वीकृति लेनी थी जो नहीं ली गई।
संशोधन में क्या था : जस्टिस रोहिंटन फली नरीमन, केएम जोसेफ और बीआर गवई की बेंच ने दो-एक के बहुमत से गुजरात हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा। बेंच ने 97वें संविधान संशोधन भाग संख्या 9बी को निरस्त कर दिया जिसमें केन्द्रीय संशोधन के जरिए राज्य की सहकारी समितियों के निदेशक मंडल के सदस्यों की सीमा 21 तथा कार्यकाल पांच वर्ष तय किया गया था। संसद ने 97वां संविधान संशोधन दिसम्बर 2011 में पारित किया था। फरवरी 2012 में यह देशभर में लागू हो गया था। गुजरात हाई कोर्ट ने 2013 में ही संशोधन के एक भाग को असंवैधानिक करार दिया था। केन्द्र सरकार की अपील को सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को खारिज कर दिया।
क्यों किया निरस्त : सुप्रीम कोर्ट ने 133 पेज के जजमेंट में साफतौर पर कहा कि राज्य का विषय होने के कारण केन्द्र सरकार को यदि सहकारिता पर संशोधन करना है तो उसे संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत देश के आधे राज्यों की विधानसभाओं से इसकी स्वीकृति लेनी होगी। इस मामले में ऐसा नहीं किया गया। अदालत ने सहकारी समितियों के प्रभावी प्रबंधन संबंधी मामलों से निपटने वाले संविधान के 97वें संशोधन की वैधता बरकरार रखी, लेकिन इसके जरिए जोड़े गए उस हिस्से को निरस्त कर दिया, जो राज्य की सहकारी समितियों के कामकाज से संबंधित है।
संसद ने दिसम्बर 2011 में देश में सहकारी समितियों के प्रभावी प्रबंधन से संबंधित 97वां संविधान संशोधन पारित किया था। यह 15 फरवरी, 2012 से लागू हुआ था। संविधान में परिवर्तन के तहत सहकारिता को संरक्षण देने के लिए अनुच्छेद 19(1)(सी) में संशोधन किया गया और उनसे संबंधित अनुच्छेद 43 बी और भाग 9 बी को सम्मिलित किया गया।
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