ऑस्ट्रेलिया के शोधकर्ताओं ने विकासशील देशों में जलाने के लिए प्लास्टिक के उपयोग को कम करने की अपील की है, क्योंकि इससे स्वास्थ्य पर गंभीर असर पड़ सकता है।

|
न्यूज एजेंसी सिन्हुआ के अनुसार, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया की कर्टिन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने एक नए अध्ययन में पाया कि अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के लाखों परिवार पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों की कमी के कारण प्लास्टिक जलाने को मजबूर हो रहे हैं।
शोध में सामने आया कि इन देशों में कई लोग गैस जैसे स्वच्छ ईंधन नहीं खरीद सकते। साथ ही, शहरीकरण बढ़ने से लकड़ी और कोयले जैसे पारंपरिक ईंधन मिलना भी मुश्किल हो गया है, जबकि प्लास्टिक कचरा आसानी से उपलब्ध है।
कर्टिन इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी ट्रांजिशन (सीआईईटी) के प्रमुख शोधकर्ता बिशाल भारद्वाज ने बताया कि प्लास्टिक जलाने से गंभीर स्वास्थ्य जोखिम होते हैं।
उन्होंने कहा, "प्लास्टिक जलाने से डाइऑक्सिन, फ्यूरान और भारी धातुओं जैसे हानिकारक रसायन हवा में घुल जाते हैं, जो फेफड़ों की बीमारियों समेत कई स्वास्थ्य समस्याएं पैदा कर सकते हैं।"
उन्होंने बताया कि महिलाएं और बच्चे इस खतरे से ज्यादा प्रभावित होते हैं क्योंकि वे घर में अधिक समय बिताते हैं।
एक सर्वेक्षण में पाया गया कि नाइजीरिया में 13% घरों में खाना पकाने के लिए कचरे का उपयोग किया जाता है। वहीं, इंडोनेशिया की मिट्टी और भोजन के विश्लेषण में प्लास्टिक जलाने से जुड़े जहरीले पदार्थ खतरनाक स्तर तक पाए गए।
अध्ययन के लेखकों ने चेतावनी दी कि यह समस्या और बढ़ेगी, क्योंकि 2050 तक विश्व की दो-तिहाई आबादी शहरों में रहने लगेगी और 2060 तक प्लास्टिक की खपत तीन गुना हो सकती है।
सीआईईटी की निदेशक पीटा ऐशवर्थ ने कहा कि यह समस्या आमतौर पर झुग्गी-बस्तियों जैसे उपेक्षित इलाकों में अधिक देखी जाती है।
उन्होंने यह भी कहा कि प्लास्टिक जलाने पर पूरी तरह रोक लगाना व्यावहारिक समाधान नहीं हो सकता। इसके बजाय, गरीब परिवारों को स्वच्छ ईंधन पर सब्सिडी देना, कचरा प्रबंधन को सुधारना और जागरूकता अभियान चलाना बेहतर उपाय हो सकते हैं।
| | |
 |