प्रशंसा
अपने दोषों की ओर से आंखें बंद करके। उन्हें बढ़ने दें या आत्मनिरीक्षण करना छोड़ दें, ऐसा हमारा कथन नहीं है।
![]() श्रीराम शर्मा आचार्य |
हमारा निवेदन इतना ही है कि बुराइयों को भुला कर अच्छाइयों को प्रोत्साहित करिए। अपने में जो दोष हैं, जो दुर्भाव हैं, उन्हें ध्यानपूर्वक देखिए और उनको कठोर परीक्षक की तरह तीव्र दृष्टि से जांचते-रहिए। जो त्रुटियां दिखाई पड़ें उनके विरोधी सुणों को प्रोत्साहन देना आरंभ करिए। यही उन दोषों के निवारण का सही तरीका है। मान लीजिए कि आपको क्रोध अधिक आता है, तो उसकी चिंता छोड़ कर प्रसन्नता का, मधुर भाषण का अभ्यास कीजिए। क्रोध अपने आप दूर हो जाएगा।
यदि क्रोध का ही विचार करते रहेंगे तो विनयशीलता का अभ्यास न हो सकेगा। यदि कोई आपको आदेश करे कि भजन करते समय बंदर का ध्यान मत आने देना, तो बंदर का ध्यान आए बिना न रहेगा। वैसे भजन करने में कभी बंदर का ध्यान नहीं आता पर निषेध किया जाए तो बढ़ोतरी होगी। बुराई कोई स्वतंत्र वस्तु नहीं है, भलाई के अभाव को बुराई कहते हैं, पाप कोई स्वतंत्र वस्तु नहीं है, पुण्य के अभाव को पाप कहते हैं। यदि भलाई की ओर, ‘पुण्य’ की ओर आपकी प्रवृत्ति हो तो बुराई अपने आप घटने लगेगी और एक दिन उसका पूर्णत: लोप हो जाएगा।
पीठ थपथपाने में घोड़ा खुश होता है, गरदन खुजाने से गाय प्रसन्न होती है, हाथ फिराने से कुत्ता हर्ष प्रकट करता है, प्रशंसा से हृदय हुलस आता है। आप दूसरों की प्रशंसा करने में कंजूसी मत किया कीजिए। जिनमें जो अच्छे गुण देखें, उनकी मुक्त कंठ से सराहना करने में पीछे न रहें, सफलता पर बधाई देने के अवसरों को हाथ से न जाने दिया करें। इसकी आदत डालना घर से आरंभ करें। अपने भाई-बहिनों, बालक-बालिकाओं की अच्छाइयों को उनके सामने कहा कीजिए।
अपनी पत्नी के रूप, सेवाभाव, परिश्रम, आत्मत्याग की भूरि-भूरि प्रशंसा किया कीजिए। बड़ों के प्रति प्रशंसा प्रकट करने का रूप कृतज्ञता है। उनके द्वारा जो सहायता प्राप्त होती है, उसके लिए कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए। किसी ने आपके ऊपर अहसान किया हो तो शुक्रिया, धन्यवाद, मैं आपका ऋणी आदि शब्दों के द्वारा थोड़ा-बहुत प्रत्युपकार उसी समय चुका दिया कीजिए। बाद में आप देखेंगे कि चारों ओर कितनी मिठास बरसती है। शत्रु-मित्र बन जाते हैं। और इसी प्रकार मित्रों का अर्जन किया जाता है।
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