दहेज
भारतवर्ष में दहेज ऐसा असुर है, जिसकी क्रूरता से अगणित कन्याएं अपना प्राण त्याग चुकीं, अनेकों वैधव्य का दुख भोग रही हैं, अनेकों परित्यक्ता बनकर त्रास पा रही हैं।
![]() श्रीराम शर्मा आचार्य |
कन्याओं के माता-पिता का तो यह असुर रक्त पान करके किसी योग्य ही नहीं रहने देता। अब तो पुत्र का जन्म सौभाग्य का और कन्या का जन्म दुर्भाग्य का चिह्न माना जाता है। बच्चों के प्रति मां-बाप की दृष्टि में ऐसी भेद बुद्धि उत्पन्न करा देना भी दहेज के असुर की ही माया है।
हर गृहस्थ में पुत्रों की भांति कन्याएं भी होती हैं, इसलिए कन्या की बारी आने पर उसे भी दहेज के बोझ से पिसना पड़ता है, हर किसी को कन्या के अभिभावकों के रूप में दहेज की निंदा करते देखा-सुना जा सकता है, किंतु वही व्यक्ति जब पुत्र का पिता या वर पक्ष की स्थिति में आता है तो तुरंत गिरगिट की तरह रंग बदल जाता है और दहेज को अपना अधिकार एवं प्रतिष्ठा का माध्यम और धन कमाने का स्वर्ण सुयोग मानकर उस अवसर से भरपूर लाभ उठाना चाहता है।
मनुष्य का यह दोगला रूप देखकर आश्चर्य होता है। वर पक्ष के रूप में वह दहेज का समर्थक था तो अब कन्या पक्ष का बनने की स्थिति में अपना घर कुर्क कराने में क्यों झिझकता है। कन्या पक्ष के रूप में दहेज को बुरा मानता है तो लड़के की शादी के अवसर पर बेचारे कन्या पक्ष वालों को अपनी जैसी कठिनाई में ग्रस्त मानकर उनके साथ सहानुभूति का बर्ताव क्यों नहीं करता। यह दुरंगी चाल वचन तथा कार्य में भिन्नता बरतने वाले समाज-सुधारकों के लैक्चर तथा लेखों को कौतूहल मात्र समझे जाने की स्थिति से आगे नहीं बढ़ने देती। हमें अपने विचार और कार्यों में एकता लानी होगी, दहेज बुरा है तो लड़के के पिता के रूप में उसे समझने को तैयार रहना होगा।
दहेज अच्छा है तो कन्या के पिता के रूप में भी उसे बिना शिकायत और रंज माने देना होगा। दुटप्पी चालें चलना हमारे नैतिक अध:पतन का चिह्न है। पतित चाहे वे धनी, विद्वान, चौधरी, पंच कोई भी हों, कोई प्रभावशाली प्रेरणा देकर समाज का पथ-प्रदशर्न करने की क्षमता नहीं रखते।
दहेज का विरोध जहां-तहां सुनाई पड़ता है पर उसके पीछे कोई बल नहीं होता क्योंकि वे विरोध करने वाले व्यक्ति ही कहनी-कथनी में अंतर रखकर अपनी स्थिति उपहासास्पद बना लेते हैं। उनकी आवाज के पीछे कोई बल न होने के कारण यह सुधार आंदोलन नपुंसक ही रहता है।
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