The Great Indian Family Review: ये राम और रहीम की फिल्म है

Last Updated 25 Sep 2023 04:24:23 PM IST

‘ओएमजी 2’ एक शुभ संकेत रही, ‘द ग्रेट इंडियन फैमिली’ भी इसी कड़ी में वैसा ही शगुन है जैसे उत्तर भारत में संपूर्ण शाकाहारी परिवारों में भी घर से निकलते समय दादी कहती है, ‘दह्यू मछरी लेति आयो..!’


फिल्म ‘द ग्रेट इंडियन फैमिली’ उसी भारत की है जहां ‘दह्यू मछरी लेति आयो..!’ कहना भर शगुन है। ये भावनाओं को समझाने वाला सिनेमा है। एक काल्पनिक शहर बलरामपुर की ये कहानी है। जो एक छोटा सा शहर है। इसी शहर में है रहता वेद व्यास त्रिपाठी उर्फ भजन कुमार का परिवार। पिता कर्मकांडी ब्राह्मण हैं। चाचा भी पूजा पाठ में बड़े भाई का हाथ बंटाते हैं। दोनों भाइयों की बहन भी घर का हिस्सा है। बिल्लू के नाम से पुकारे जाने वाले वेद व्यास की अपनी भजन संध्याओं को लेकर इलाके में काफी शोहरत है। चाची उसकी खुद को हेमा मालिनी से कम नहीं समझती हैं और एक बहन है जो भाई पर जान छिड़कती है। ‘द ग्रेट इंडियन फैमिली’ आम मुंबइया फिल्म नहीं है। इसे देखने के लिए आपको उसी खुले दिमाग से जाना होगा, जिस भावना के साथ हम अपने दोस्तों को व्हाट्सऐप पर ईद मुबारक के संदेश भेजते हैं।

फिल्म ‘द ग्रेट इंडियन फैमिली’की कहानी किसी बहुत ही साधारण फिल्म की तरह शुरू होती है। भजन कुमार का परिचय उन्हीं से कराते हुए फिल्म पंडिताई में चलने वाली प्रतिद्वंद्विता तक होती हुई वहां अपने असली मोड़ पर आती है जहां कहानी के नायक का अतीत घर पर आई एक चिट्ठी खोलती है। परिवार का मुखिया तीर्थयात्रा पर है, मोबाइल बंद करके। यहां बलरामपुर में सब कुछ उलट पुलट हो जाता है। धर्म की व्याख्या वस्त्रों और खानपान के तरीके से होती दिखती है। फिल्म का climax आता है पिता-पुत्र के आपसी विश्वास के रूप में।

फिल्म ‘गदर 2’, ‘ओएमजी2’ और ‘जवान’ के बाद ‘द ग्रेट इंडियन फैमिली’ इस साल की चौथी फिल्म है, जिसका डीएनए पिता-पुत्र के रिश्ते पर टिका है। डीएनए इस फैमिली के क्लाइमेक्स का भी हिस्सा है लेकिन ये फिल्म देखकर लगता है कि सिनेमा अभी भी समाज से दूर नहीं हुआ है और भले ‘जयेशभाई जोरदार’ जैसी फिल्म अपना सामाजिक संदेश सही तरीके से दर्शकों को सामने परोसने में पूरी तरह विफल रही, निर्माता आदित्य चोपड़ा का ‘दम लगाके हईशा’ जैसी फिल्में बनाने का जुनून अभी थका नहीं है। आदित्य ही इस फिल्म को हरी झंडी दिखाने के लिए पहली बधाई के हकदार हैं। दूसरी बधाई आती है फिल्म के निर्देशक विजय कृष्ण आचार्य के हिस्से में। बिना हेलमेट ट्रिपल सवारी करते नौजवान जब भगवा लपेटकर चौराहे पर चेकिंग कर रहे पुलिसवालों के बीच से ‘जय श्री राम’ बोलकर निकल जाते हैं, तो ये बड़ा स्टेटमेंट भी है और धर्म के नाम पर समाज में जो कुछ हो रहा है उसका आईना भी।

‘हम ब्राह्मण हैं, श्राप दे देते हैं तो जीवन नष्ट हो जाता है’ सरीखे संवाद बोलने वाले ब्राह्मणों के गुमान, भतीजे पर जान छिड़कने वाले चाचा के प्यार, छुप छुप कर प्यार करती बहन के दुलार और एक सख्त पिता के मोम से पिघलते गुबार को फिल्म ‘द ग्रेट इंडियन फैमिली’ में विजय जिन्हें प्यार से सब विक्टर कहते हैं, बहुत सलीके से पेश किया है। फिल्म प्रेरित है 1992 के दंगों से उपजी हिंसा के बाद भी दो समुदायों में बने आपसी भाईचारे से। एक पुत्र के ये कहने से कि भले जिनके घर वह पला, वह उसके असली पिता न हों, लेकिन उनका अपमान वह बर्दाश्त नहीं करेगा। मौलवी के सामने ये फिल्म सवाल खड़े करती है और एक अनजान को अपने घर में पनाह देने वाली मुस्लिम महिला की दरियादिली का कमाल भी दिखाती है। सवाल उठ सकता है कि दंगाई सारे एक ही समुदाय के क्यों हैं, और बड़ा दिल दिखाने वाले सब दूसरे समुदाय के ही क्यों? लेकिन, ये सवाल भी अगर दर्शकों के दिमाग में फिल्म देखने के बाद बने रह जाते हैं तो ये सिनेमा की सफलता का प्रमाण है।

कलाकारों के मामले में ये फिल्म विक्की कौशल की फिल्म यात्रा में मील का वह बड़ा सा पत्थर है जिसके पास आने के लिए वह बार बार ललचाएंगे। ऐसे किरदार युवा कलाकारों को सौभाग्य से मिलते हैं और विक्की कौशल ने ये साबित किया है कि अगर निर्देशक सधे हुए मदारी सरीखा हो तो वह तमाशा अव्वल नंबर का दिखा सकते हैं। घर छोड़कर जाने का दृश्य हो या अपनी प्रेमिका के पहले चुंबन का, उनका अभिनय नैसर्गिक दिखता है। वेद व्यास त्रिपाठी जब घर में आई चिट्ठी से उद्वेलित होकर अपनी पहचान बदलता है और फिर लौटकर वापस घर आता है तो अपने पिता के साथ वाले उसके दृश्यों में विक्की कौशल के अभिनय का विस्तार पहली बार बड़े परदे पर ठोस तरीके से सामने आता है। फिल्म में उनकी प्रेमिका बनीं मानुषी छिल्लर का किरदार फिल्म में ज्यादा विस्तार नहीं पाता है। कहानी के हिसाब से उसकी जरूरत है भी नहीं।

फिल्म ‘द ग्रेट इंडियन फैमिली’ की मजबूती इसके सहायक कलाकारों में हैं। ऋषिकेश मुखर्जी की तरह विजय कृष्ण आचार्य ने भी अपनी कहानी को करीने से गढ़ा है और एक एक किरदार को उसकी काबिलियत दिखाने का पूरा मौका दिया है। कुमुद मिश्रा ने एक कर्मकांडी ब्राह्मण के साथ एक ऐसे इंसान का किरदार पेश किया है जिसका अतीत खुलता है तो इस किरदार के लिए दर्शकों का सम्मान एकाएक बढ़ जाता है। मनोज पाहवा ने चाचा के रूप में प्रभावित किया है। अपने भतीजे को घर से निकालने से पहले उसे उसका बचपन याद दिलाने वाला दृश्य भावुक कर जाता है। बहन के किरदार में सृष्टि दीक्षित का काम गौर करने लायक है। खासतौर पर अपनी प्रेम कहानी का खुलासा करते समय का उनका आत्मविश्वास फिल्म में हल्का फुल्का माहौल भी बना देता है। वेद व्यास के बचपन का रोल निभाने वाले वेदांत सिन्हा ने जिस तरह से सोनू निगम के गाए गाने पर लिप सिंक किया है, वह उनके उज्ज्वल भविष्य की तरफ बढ़ा एक मजबूत कदम है।

दूसरे सहायक कलाकारों में यशपाल शर्मा एक कुटिल ब्राह्मण के रूप में खूब जंचे हैं। आसिफ खान के पास अपना हुनर दिखाने के ज्यादा मौके नहीं आए। परितोष संड का किरदार छोटा सा है लेकिन उसमें भी वह अपनी छाप छोड़ जाते हैं। और हां, अरसे बाद प्रीतम ने ओरीजनल म्यूजिक इस फिल्म में बनाने की कोशिश की है। खासतौर से सोनू निगम का गाया गाना फिल्म की जान है। वह इस दौर के संगीत की अमावस में दिवाली सरीखा है। ‘कन्हैया ट्विटर पे आजा’ भजन कम और आइटम नंबर अधिक लगता है। दर्शन रावल और अंतरा मित्रा का गाया गाना ‘साहिबा’ भी असर नहीं छोड़ पाता है। फिल्म के कला विभाग का काम गड़बड़ है। सेट जब सेट सरीखे दिखने लगें तो दर्शक पर उसका असर भी पड़ता है। हां, अयनंका बोस की सिनेमैटोग्राफी फिल्म की आत्मा को शुरू से पकड़कर रखती है। चारू श्री रॉय का संकलन भी ठीक है। ध्यान ये रखना है कि ये फिल्म इंडिया की नहीं भारत की बात करती है और इस हफ्ते रिलीज हुई ‘जाने जां’, ‘एक्सपेंडेबल्स 4’ और ‘सुखी’ के मुकाबले ‘द ग्रेट इंडियन फैमिली’ सिनेमा का काफी अच्छी है। फिल्म की मार्केटिंग बहुत खराब रही है। अगर इस फिल्म को इसके तेवर और कलेवर के हिसाब से प्रचारित किया गया होता तो बॉक्स ऑफिस पर इसके नतीजे चौंकाने वाले हो सकते थे।

समय डिजि़टल
नई दिल्ली


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