देश को नहीं कोरोना को करें लॉकडाउन
वैसे तो एक साल किसी चुनौती से दो-दो हाथ करने के लिए कम समय नहीं होता, लेकिन कोरोना के मामले में लगता है, जैसे वक्त ठहर गया है।
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संसाधनों के बेहतर विकल्प और सरकार की चौतरफा तैयारी के बावजूद ऐसा अनुभव हो रहा है जैसे हम वहीं खड़े हैं जहां एक साल पहले थे और महामारी हमारी हर तैयारी पर भारी पड़ रही है। हकीकत तो यह है कि अगर हालात से निपटने का हमारा हौसला पुरजोर है, तो दूसरी लहर में कोरोना के कहर में भी पहले से कहीं ज्यादा जोर है।
यह फासला इतना बड़ा होता जा रहा है कि पिछले साल से इसकी तुलना भी बेमानी लगने लगी है। पिछले साल 11 सितम्बर को जब कोरोना का पहला पीक आया था, तब एक दिन में सबसे ज्यादा 97 हजार मरीज मिले थे। दूसरी लहर में नये संक्रमितों का दैनिक आंकड़ा दो लाख को पार कर चुका है और कोई ठीक-ठीक अंदाजा नहीं लगा पा रहा है कि इस बार का पीक क्या होगा? सक्रिय मरीजों के मामले में भी कोरोना उस मोड़ पर पहुंच चुका है, जहां पिछली सर्वाधिक संख्या किसी होड़ में नहीं दिख रही है। पिछले साल 17 सितम्बर को देश में 10.17 लाख एक्टिव केस थे, इस बार यह संख्या अभी से 15 लाख के पार पहुंच गई है। कोरोना के मामलों में आया यह उछाल दरअसल, पिछले एक पखवाड़े का ‘कमाल’ है। बेशक, देश के कई डॉक्टर और महामारी विशेषज्ञ दूसरी लहर में कोरोना के और खतरनाक हो जाने की आशंका जता रहे थे, लेकिन छह महीनों की अपेक्षाकृत शांति के बाद कोरोना इस तरह ‘तूफान’ बनकर टूटेगा, इसका किसी को अंदाजा नहीं था। हालात ये हो गए हैं कि पिछले साल की पाबंदियां फिर लौट आई हैं और तालाबंदी कई राज्यों की मजबूरी बन गई है। राज्य सरकारें अपने हिसाब से कुछ शहरों में वीकेंड लॉकडाउन, कहीं-कहीं टोटल लॉकडाउन, तो कुछ में नाइट कर्फ्यू लगा रही हैं।
अच्छी बात यह है कि राज्य सरकारों की इस प्रतिक्रिया से राष्ट्रीय स्तर पर किसी लंबे लॉकडाउन की आशंका को दूर करने में केंद्र सरकार ने देरी नहीं दिखाई है। इसका सबसे ठोस संकेत राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक में खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दिया। इसकी वजह और फायदे भी स्पष्ट हैं। पिछले साल हमें लॉकडाउन लगाने की जरूरत इसलिए पड़ी थी कि महामारी से निपटने की समझ और संसाधन के स्तर पर हम तैयार नहीं थे। एक साल के अनुभव से आज हम इन दोनों स्तरों पर कई गुना ज्यादा मजबूत हुए हैं। लेकिन फिलहाल राष्ट्रीय लॉकडाउन नहीं लगाने का यह मतलब नहीं कि राज्यों में तालाबंदी से केंद्र सरकार का कोई सरोकार नहीं है। कोरोना से निपटने के लिए हर राज्य के अलग-अलग तौर-तरीकों के बीच समन्वय बनाने का काम तो केंद्र सरकार ही कर रही है। खासकर सुनिश्चित करने में कि राज्यों में जो सख्ती बरती जा रही है, उससे वैसे हालात न बनने दिए जाएं जैसे पिछले साल लॉकडाउन के दौरान बने थे।
पीएम की सलाह है बेहतर मार्गदर्शन
इसमें प्रधानमंत्री की सलाह बेहतर मार्गदशर्न का काम कर सकती है। उन्होंने संपूर्ण लॉकडाउन की जगह स्थानीय स्तर पर माइक्रो-कंटेनमेंट जोन बनाने का सुझाव दिया है। इसका सीधा-सीधा फायदा भी दिखता है। एक तो इससे दिहाड़ी मजदूरों और कामगारों पर पिछले साल अचानक थोपी गई बेरोजगारी और पलायन के हालात से बचा जा सकता है। दूसरा, पलायन से उद्योग-धंधों पर बुरे असर और पटरी पर लौट रही अर्थव्यवस्था को दोबारा संकट में डालने से बचाया जा सकता है। ब्रिटिश ब्रोकरेज फर्म बार्कलेज की ताजा रिपोर्ट बताती है कि पिछले कुछ सप्ताह से राज्यों में जारी प्रतिबंधों की वजह से अर्थव्यवस्था को हर सप्ताह 9.37 हजार करोड़ रु पये का नुकसान होगा, जो एक हफ्ते पहले 3.5 हजार करोड़ था। इसके कारण अगली तिमाही में विकास दर 1.40 फीसद गिर सकती है। हालांकि लंबी तालाबंदी के अंदेशे के बीच महाराष्ट्र, गुजरात एवं दिल्ली-एनसीआर से कामगारों का पलायन शुरू भी हो चुका है। इससे बचने के लिए इन राज्य सरकारों को समझना होगा कि टोटल या वीकेंड लॉकडाउन लगाने के बजाय कोरोना संक्रमण से बचाव के नये सुझाव और पिछले साल से आजमाए जा रहे उपायों को सही ढंग से लागू करके भी स्थिति को नियंत्रित किया जा सकता है और यहीं केंद्र की भूमिका अहम हो जाती है। एक टीम के रूप में काम करते हुए केंद्र और राज्य सरकारें कामगारों को भरोसे में लेने, उन्हें जरूरी सूचनाएं उपलब्ध कराने और लॉकडाउन को लेकर असमंजस के माहौल को दूर करने जैसे कदम उठा सकती हैं।
कोरोना की चेन तोड़कर उसे सीमित दायरे में कैद करने के लिए प्रधानमंत्री ने ट्रैकिंग, ट्रेसिंग एवं टेस्टिंग का फॉर्मूला भी सुझाया है। जाहिर तौर पर इस फॉर्मूले की सोच में ही इसकी सफलता निहित है। संक्रमण की तलाश पर हम जितना काम करेंगे, जितनी जानकारी जुटाएंगे, जितनी जल्दी संक्रमितों का इलाज शुरू करेंगे, कोरोना पर उतनी ही तेजी से विजय पाएंगे। लेकिन इसके लिए समाज को सरकार के साथ बीते साल वाला सामंजस्य दिखाना होगा, जब प्रधानमंत्री की एक आवाज पर पूरा देश लॉकडाउन जैसे कड़े फैसले के साथ ही ताली-शंख बजाने और दीए जलाने जैसी देश को एकजुट रखने वाली गतिविधियों के लिए तैयार दिखा था। दुर्भाग्य से इस बार कोरोना संक्रमण के उफान पर पहुंचने के बावजूद लोग जरूरत पड़ने पर ही घर से निकलने और सावधानी बरतने वाली हिदायत से बेपरवाह दिख रहे हैं। यह बात भी गले नहीं उतरती कि जब देश के सामने ऐसे मुश्किल हालात हैं, तब ऐसे राजनीतिक, धार्मिंक एवं सांस्कृतिक आयोजनों को मंजूरी कैसे मिल रही है, जहां हजारों-लाखों लोगों का जमावड़ा हो रहा है और शारीरिक दूरी बिल्कुल जरूरी नहीं दिख रही है।
विदेशी वैक्सीनों के लिए खोले दरवाजे
इसका कुछ संबंध टीकाकरण से भी है। प्रधानमंत्री भले ही देश को ‘दवाई भी और कड़ाई भी’ वाला मंत्र लगातार याद दिलाते रहे हों, लेकिन वैक्सीन की उपलब्धता से मिला सुरक्षा का ‘कवच’ भी कहीं-न-कहीं लोगों को कोरोना से लड़ने के लिए जरूरी ‘अनुशासन’ तोड़ने का दुस्साहस दे रहा है। और जब तक ऐसा होता रहेगा, तब तक टीकाकरण की रफ्तार बढ़ाने के उपाय और टीके की बर्बादी रोकने की प्रधानमंत्री की अपील भी देश के ज्यादा काम नहीं आ सकेगी। इस मोर्चे पर अच्छी खबर यह है कि भारतीय वैक्सीनों की उत्पादन क्षमता बढ़ाने के साथ ही सरकार ने देश की जरूरत को देखते हुए विदेशी वैक्सीनों के लिए भी दरवाजे खोल दिए हैं। आने वाले दिनों में फाइजर, मॉडर्ना, जॉनसन एंड जॉनसन जैसी अमेरिकी और स्पूतनिक जैसी रूसी वैक्सीन भी देश को उपलब्ध हो सकेंगी, जो यकीनन कोरोना से हमारी लड़ाई को नई धार देने का काम करेंगी।
इसके साथ ही सरकार को एक काम और करना होगा और वो है टीके की बर्बादी और इसकी कालाबाजारी को रोकना। सरकार की अपनी रिपोर्ट बताती है कि टीकों की बर्बादी से रोजाना एक करोड़ रु पया बेकार जा रहा है। टीकाकरण के शुरु आती तीन महीनों में टीकों की करीब 60 लाख खुराकें बर्बाद हुई हैं। 150 रु पये प्रति टीके की खरीद दर और उसे केंद्रों तक पहुंचाने में होने वाले खर्च के हिसाब से यह नुकसान 90 करोड़ रुपये से ज्यादा का बैठता है। केरल इकलौता राज्य है, जहां टीके की बर्बादी दर शून्य है यानी वहां एक-एक टीके का सही उपयोग हुआ है। कई राज्यों में टीके के बर्बाद होने की दर अभी भी आठ से नौ फीसदी तक है, जो चिंता का विषय है। रेमडेसिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी और वैक्सीन की चोरी जैसी घटनाएं इस चिंता को और बढ़ाती हैं। इसमें कुछ लोगों द्वारा वैक्सीन को लेकर फैलाए जा रहे भ्रम और अफवाहों को भी जोड़ दिया जाए, तो यह हिमाकत कोरोना के खिलाफ हमारी लड़ाई को न केवल लंबा खींचने, बल्कि उसे कमजोर करने वाली भी दिखती है।
ऐसी कोशिशों पर तुरंत काबू पाना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि इस बार हालात बिल्कुल अलग हैं। खुद प्रधानमंत्री ने माना है कि दूसरी लहर पहले से ज्यादा तेज है और तुलनात्मक रूप से ज्यादा चिंता का विषय भी है। ऐसे में छोटी-सी लापरवाही भी हालात को बेकाबू करने के लिए काफी होगी। एक साल से लगातार इस चुनौती से जूझ रहे हमारे सिस्टम में थकान की बात समझी जा सकती है, लेकिन फिर भी हम नहीं भूल सकते कि अगले दो-तीन हफ्ते देश के लिए बेहद अहम हैं। इसलिए इस लड़ाई को केवल सरकार और स्वास्थ्य अमले की जिम्मेदारी मानकर उससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। अगर हमारे लिए याद रखना जरूरी है कि देशवासियों का समर्पण ही कोरोना की पहली लहर में देश की ताकत बना था, तो हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उसी सावधानी, सहयोग और सामंजस्य से इस बार देश को नहीं, बल्कि कोरोना को लॉकडाउन करना है।
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