फिर डटे किसान, कैसे निकलेगा समाधान?
67दिन पुराने किसान आंदोलन में 99 साल पुरानी एक ऐसी घटना का दिलचस्प साम्य देखने को मिल रहा है, जिसे हमारी आजादी के आंदोलन का टर्निग प्वाइंट भी माना जाता है।
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महज चार दिन बाद हम उस घटना के शताब्दी वर्ष में प्रवेश करने वाले हैं। यह घटना थी चौरी चौरा की, जहां असहयोग आंदोलन के दौरान हुई हिंसा में आंदोलनकारियों ने पुलिस चौकी फूंक दी थी, जिसमें 22 पुलिसकर्मिंयों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। इसकी तुलना में 26 जनवरी को लाल किले की घटना में जान-माल का नुकसान भले ही कम हुआ हो, लेकिन जख्म कहीं ज्यादा गहरा दिखता है। चौरी-चौरा की हिंसा से दुखी होकर अहिंसा के सबसे बड़े पुजारी महात्मा गांधी ने तो असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था, लेकिन किसान आंदोलन इसकी उलट राह पर जाता दिख रहा है। हालांकि घटना के अगले दिन ऐसा लगा था कि आंदोलन के कुछ नेताओं के न चाहने के बावजूद किसानों ने भी बड़े पैमाने पर घर वापसी का मन बना लिया है, लेकिन उसके बाद हुए घटनाक्रम ने फिर से तस्वीर बदल दी है।
लाल किले की घटना के प्रायश्चित के लिए किसान नेताओं ने गांधीजी की पुण्यतिथि पर एक दिन का उपवास तो रखा, लेकिन आंदोलन को नए सिरे से तेज करने का ऐलान भी कर दिया। इसे आंदोलन का पार्ट-2 भी कह सकते हैं और इसमें दो बदलाव बहुत स्पष्ट दिखने लगे हैं। पहला यह कि सिंघु बॉर्डर की जगह अब गाजीपुर बॉर्डर आंदोलन की नई उम्मीद बन गया है, जहां राकेश टिकैत का गुट धरने पर बैठा है। नई उम्मीद नया समर्थन लेकर आई है, जिससे आंदोलन का केंद्र अब पंजाब और हरियाणा से निकल कर पश्चिम उत्तर प्रदेश की ओर शिफ्ट हो गया है और यही दूसरा बदलाव भी है। टिकैत के गांव समेत पश्चिमी यूपी के कई हिस्सों के साथ-साथ हरियाणा की तमाम जाट खापें भी अब खुलकर टिकैत के समर्थन में आ गई हैं। हर दिन तेजी से बदल रहे हालात और अपने नफा नुकसान को देखते हुए किसान आंदोलन को अब तक बाहर से समर्थन दे रहे कई विपक्षी दल भी अब खुलकर अपनी भागीदारी निभाने के लिए एक-एक कर सामने आने लगे हैं। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी समेत कई विपक्षी दलों ने शुक्रवार को राष्ट्रपति के अभिभाषण का बहिष्कार कर सरकार को इस बाबत साफ संकेत दे भी दिए।
इन तमाम घटनाक्रमों के बीच यह सब क्यों हुआ जैसे सवाल अब शायद समाधान के नजरिए से बेमानी हो गए हैं। लाल किले का कसूरवार कौन है? क्या गाजीपुर बॉर्डर पर प्रशासन की आक्रामक कार्रवाई ने किसानों को नये सिरे से गोलबंद कर दिया? गाजीपुर और सिंघु बॉर्डर पर हुई हिंसा वाकई स्थानीय लोगों की नाराजगी है या कोई सियासी साजिश? क्या उपवास से किसान नेताओं की जिम्मेदारी पूरी हो जाएगी? ऐसे न जाने कितने सवालों के जवाब मिल भी जाएंगे तो एक नया सवाल पैदा होगा कि क्या इससे किसानों और सरकार का मंतव्य पूरा हो जाएगा?
बेशक इन सवालों के जवाब इस नजरिए से जरूरी हैं कि इनके पीछे की असली ताकतें बेनकाब हों, लेकिन उसके साथ ही साथ यह भी जरूरी है कि इसकी वजह से दो महीने से ज्यादा पुराने हो चुके गतिरोध को सुलझाने की प्रक्रिया प्रभावित न हो। किसान जिसे अपने जीवन-मरण की लड़ाई कह रहे हैं, सरकार उसे कुछ नेताओं की हठधर्मिंता बता रही है। हालांकि सच यह भी है कि किसानों के 40 से ज्यादा संगठन इस ‘लड़ाई’ में शामिल हैं और सबकी अपनी-अपनी राय है, जिसके कारण सरकार और किसानों की एक राय नहीं बन पा रही है। इस बात को तो किसान भी मानेंगे कि सड़कें देश को जोड़ने के लिए होती हैं, धरने पर बैठ कर लोगों के बीच फासले बनाने के लिए नहीं और अगर वो इसी तरह दिल्ली की सीमाओं पर राशन-पानी लेकर डटे रहे, तो कितना भी अनुशासन बना कर रखा जाए, देर-सबेर लॉ एंड ऑर्डर की चुनौती तो खड़ी होगी ही। वैसे भी दिल्ली देश की राजधानी है और देश हित में यह ठीक भी नहीं होगा कि इजराइली दूतावास के पास हुए ब्लास्ट जैसे मसलों को लेकर यहां की पुलिस पर पड़ने वाले अतिरिक्त दबाव को नजरअंदाज कर उसकी कार्यक्षमता को कटघरे में खड़ा कर दिया जाए।
हालांकि ऐसा भी नहीं है कि इस पूरे आंदोलन का कोई पक्ष उजला न हो। 12 दौर की बातचीत बताती है कि सरकार मामले का हल निकालना चाहती है, आंदोलन के पहले 60 दिनों का अनुभव बताता है कि ज्यादातर किसान शांतिपूर्ण तरीके से अपनी मांग पूरी करवाने के पक्षधर हैं, लाल किले पर दिल्ली पुलिस का संयम काबिले तारीफ है, तो मुजफ्फनगर की महापंचायत में जुटी हजारों की भीड़ को दिल्ली कूच करने के बजाय वापस घर भेज कर किसान नेताओं ने जो अनुशासन दिखाया है, उसे भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। इन सब घटनाक्रमों के बीच मूल प्रश्न यही होना चाहिए कि आगे क्या किया जाए कि इस समस्या का शांतिपूर्ण हल निकल जाए, लेकिन क्या यह संभव है कि 12 दौर की आधिकारिक बातचीत और पर्दे के पीछे की अनिगनत कोशिशों के बाद भी कोई जुगत ऐसी बची होगी, जिस पर अब तक किसी का ध्यान नहीं गया? सामान्य समझ तो यही कहती है कि यह मसला जिद से नहीं, आपसी बातचीत से ही सुलझ सकता है और इसके लिए सरकार और किसान दोनों को अपनी-अपनी पोजीशन से पीछे हटना होगा।
बेशक बातचीत का दौर फिलहाल स्थगित चल रहा हो, लेकिन सोमवार को पेश हो रहा बजट वो ‘पुल’ हो सकता है, जो दोनों पक्षों को भरोसे की नई डोर से जोड़ दे। शुक्रवार को पेश हुए आर्थिक सर्वे में भले ही नये कानूनों की पुरजोर वकालत की गई हो, लेकिन बजट के जरिए सरकार इसे तार्किक बनाने की कोशिश कर सकती है। सरकार अगले साल तक किसानों की आय दोगुनी करने के लिए संकल्पित है और इसकी पूर्ति के लिए बजट में आर्थिक मदद, सब्सिडी और कैश इन्सेंटिव का दायरा और राशि, दोनों को बढ़ाया जा सकता है। नये कृषि कानूनों के संदर्भ में सरकार आंदोलन कर रहे किसान नेताओं की शंकाओं को दूर करते हुए मुनाफे वाली वैकल्पिक खेती और एमएसपी पर निर्भरता घटाने के लिए फसल विविधता के नए विकल्प पेश कर सकती है। वैकल्पिक फसलों पर इन्सेंटिव बढ़ने से पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी की नाराजगी भी काफी हद तक दूर हो सकती है। तीनों कानून फिलहाल स्थगित हैं, ऐसे में एक विकल्प यह भी हो सकता है कि सरकार एमएसपी पर गारंटी देने के लिए तैयार हो जाए और किसान फिलहाल तीनों कानूनों को वापस लेने की मांग अगले फैसले तक टाल दें। दोनों पक्षों को यह समझना होगा कि हार-जीत से ज्यादा अब यह मसला देश हित का बन गया है, जो आर-पार से नहीं, बल्कि आपसी सरोकार से ही सुलझेगा।
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