शुरु आत चीन ने की है खत्म भारत करेगा
कोई ताकत बाबा केदार और पशुपतिनाथ को अलग नहीं कर सकती, चीन ने एक बार फिर विश्वासघात किया है। पांच मई से ही लद्दाख की गलवान घाटी में वास्तविक नियंत्रणरेखा को पार करने की हिमाकत चीन ने करना शुरू की और जब भारत ने इसका कड़ा प्रतिरोध किया तो पीछे हटने को तैयार होने हो जाने के बावजूद अपनी हरकत से बाज नहीं आया।
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लेफ्टिनेंट जनरल और मेजर जनरल स्तर की दो बैठकों के बाद भी चीनी सैनिक रात के अंधेरे में एलएसी पार कर अपना तंबू लगाने की नापाक हरकत करने लगे जिसका गलवान घाटी में तैनात भारतीय सेना की बिहार रेजिमेंट ने मुंहतोड़ जवाब दिया। नतीजतन, 45 साल बाद भारत-चीन सीमा पर हिंसक झड़प हुई जिसमें कर्नल समेत भारतीय सेना के 20 जवान शहीद हुए और चीनी सेना के भी 40 से ज्यादा जवान या तो मारे गए या बुरी तरह जख्मी हुए।
एक तरह से कहें तो हमारे सैनिकों ने बिना समय व्यर्थ किए उसी रात चीनी सैनिकों को मारते-मारते अपनी शहादत देकर बदला ले लिया। लेकिन पूरा बदला बाकी है क्योंकि चीनी अभी भी वास्तविक नियंत्रणरेखा से पीछे नहीं हटे हैं। और तो और चीन का विदेश मंत्रालय अब यह भी कहने लगा है कि पूरी गलवान घाटी उसकी है। यह बयान दशर्ता है कि 15 जून की रात को उच्चस्तरीय सैन्य बैठकों के बीच चीनी सैनिकों का हिंसक व्यवहार जोश में कोई अचानक हो जाने वाली घटना नहीं थी, बल्कि एक पूर्वनियोजित साजिश का हिस्सा थी। अब चीन चाहे जितनी मीठी बातें करे और एलएसी पर शांति और यथास्थिति बनाए रखने की रट लगाता रहे, गलवान घाटी पर उसके विदेश मंत्रालय का दावा ठोकने वाला यह बयान दशर्ता है कि बातचीत लंबी खिंचेगी और लंबे समय तक दोनों तरफ की सेना आमने-सामने रहने वाली हैं। भारतीय सेना की चीन सीमा पर भारी तैनाती की खबरें चीन के साथ दीर्घगामी तनाव का ही इशारा कर रही हैं।
जिस चीन से हमारा सालाना व्यापार करीब 6 लाख करोड़ रुपये का है और जिस चीन के राष्ट्रपति से प्रधानमंत्री मोदी अलग-अलग समय पर करीब 18 बार मिल चुके हों आखिर उस चीन ने ऐसा क्यों किया? उसका मकसद क्या है? जब समूची दुनिया कोरोना जैसी जानलेवा महामारी से लड़ रही है, तब चीन को ऐसी चालबाजी करने की आखिर जरूरत क्यों पड़ी? कहते हैं कि चीन ने 1962 में भी ऐसा ही किया था। 1962 की मई-जून तक चाउ-एन-लाई और पंडित नेहरू दिल्ली की सड़कों पर घूमते दिखे थे और लंच-डिनर की टेबल पर साथ बैठने की तस्वीरें छपी थीं और नवम्बर में चीन ने भारत पर हमला कर दिया था। खैर, वह इतिहास था, भारत का वर्तमान और चीन का वर्तमान बिल्कुल अलग है। आज दुनिया भारत को एक विसनीय राष्ट्र के तौर पर देखती है जबकि चीन की छवि वि में एक धोखेबाज राष्ट्र के रूप में बनी है।
दरअसल, कोरोना काल में अपनी कारगुजारियों के कारण अलग- थलग पड़े चीन की यह एक चालबाजी थी। वुहान लैब के वायरस पर घिरे चीन की भारत-चीन सीमा पर तनाव पैदाकर मुद्दे को भटकाने और साथ में लद्दाख सीमा पर गलवान घाटी की फिंगर 8 तक की सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सभी चोटियों पर काबिज हो जाने की अपनी चाल में भारत को उलझाने की रणनीति थी। तनाव पैदाकर चीन से भाग रही कंपनियों का भारत प्रवेश का रास्ता चीन बंद करना चाहता था। भारत का बॉर्डर एरिया में विकास और राजमागरे का जाल बिछाना भी चीन को नागवार गुजरा।
नेपाल में चीन की भूमिका
इसके लिए चीन ने सबसे पहले नेपाल का इस्तेमाल किया। लद्दाख की सड़कें और लिपुलेख के जरिए अमरनाथ यात्रा मार्ग, दोनों ही चीन की आंख की किरकिरी लगे। और इसी लिपुलेख राजमार्ग के चलते भारत-नेपाल जैसे दो पक्के दोस्तों में विवाद की जड़ बना है एक नक्शा, जिसमें नेपाल ने भारत के तीन इलाकों लिंपियाधुरा, कालापानी और लिपुलेख को अपनी सीमा में दिखाया है। विवाद इसलिए है क्योंकि ये तीनों इलाके करीब 200 साल से भारत का हिस्सा हैं, यहां रहने वाले लोग भारतीय नागरिक हैं, भारत को टैक्स देते हैं और भारत के चुनावों में वोट भी डालते हैं। भारत की आपत्तियों के बावजूद नेपाल ने इस नक्शे को संवैधानिक जामा पहनाने की औपचारिकताएं पूरी कर ली हैं। नेपाली संसद के बाद वहां के राष्ट्रपति ने भी इसे मंजूरी दे दी है यानी अब इस फैसले को केवल नेपाल के संविधान में संशोधन लाकर ही बदला जा सकेगा। ऐसी खबरें सामने आई हैं कि जो नक्शा भारत और नेपाल के बीच विवाद की वजह बना है, उसकी जड़ चीन ही है। इसकी भूमिका तैयार की नेपाल में चीन की युवा राजदूत होउ यांगी ने, जिसने ओली को भारत के खिलाफ इतना बड़ा कदम उठाने के लिए तैयार किया। भारत के थल सेनाध्यक्ष जनरल एमएस नरवणो ने पहले ही चीन का नाम लिए बगैर इसके संकेत दिए थे।
लिपुलेख इसलिए भी हमारे लिए खास है कि 1962 के युद्ध के बाद से ही इस दर्रे से चीनी घुसपैठ की आशंका रही है। इस इलाके में सेना की पहुंच को तुरंत और आसान बनाने के लिए भारत ने यहां 80 किमी. लंबी सड़क भी बनाई है। नक्शा विवाद ने इस सड़क और इस क्षेत्र के भविष्य को लेकर भारत की रणनीतिक चिंताएं बढ़ा दी हैं। क्या हमें घेरने के लिए चीन ने पाकिस्तान के बाद अब नेपाल के कंधे पर भी बंदूक रख दी है? क्या भारत के खिलाफ चीन-पाकिस्तान-नेपाल कोई त्रिकोण बनाने जा रहे हैं? 2015 के चुनावी अभियान में ओली ने खुलकर चीन के साथ सहयोग बढ़ाने और भारत पर निर्भरता कम करने के नाम पर वोट मांगे। चीन ने भी धीरे-धीरे नेपाल में निवेश और कर्ज बढ़ाकर भारत की जगह भरने में कोई कसर नहीं छोड़ी। रेलवे, एयरपोर्ट, बिजली प्लांट और इंफ्रास्ट्रक्चर में बड़े आर्थिक निवेश के साथ ही उसने नेपाल को अपनी बेल्ट एंड रोड योजना में अहम साझेदार बना लिया। नेपाली स्कूलों में चीनी भाषा मैंडरिन की पढ़ाई होने लगी है और चीनी शिक्षकों का पूरा खर्च चीन ही उठा रहा है। पिछले साल नेपाल दौरे पर शी जिनपिंग ने काठमांडू को तिब्बत से जोड़ने वाली रेललाइन परियोजना को हरी झंडी दिखाई थी, ताकि आयात-निर्यात के मामले में नेपाल की भारत पर निर्भरता खत्म की जा सके। 1996 में जियांग जेमिन के बाद के दो दशकों में पहली बार कोई चीनी राष्ट्रपति नेपाल को इतनी तवज्जो देता दिखाई दिया। इसलिए आशंका खारिज नहीं की जा सकती कि चीन धीरे-धीरे हमारी समूची उत्तरी सीमा की घेराबंदी कर रहा है। राहत की बात यह है कि भारत की तरह नेपाल भी इस विवाद के दूरगामी असर को समझ रहा है। ओली ने नेपाली सदन में भारत से रिश्ते बेहतर करने की बात दोहराई है, तो हमारे रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने इससे एक कदम आगे बढ़ते हुए यहां तक दावा किया है कि कोई ताकत बाबा केदार और पशुपतिनाथ को अलग नहीं कर सकती।
शायद चीन को भी यह बात पता है कि देर-सबेर नेपाल और भारत करीब आ सकते हैं, इसलिए उसने नियोजित ढंग से लद्दाख में मोर्चा खोल दिया है। धारा 370 खत्म कर भारत ने जिस तरह सख्त कश्मीर नीति का संदेश दिया था और पाकिस्तान अधिग्रहित कश्मीर के साथ अक्साई चिन पर भी मजबूती से दावा ठोका था, उससे पहले से ही घबराए चीन को चालबाजी का यही रास्ता दिखा। चीन का मकसद चाहे जो हो लेकिन भारत सरकार और सेना ने साफ संदेश दे दिया है कि चीन को पीछे जाना ही होगा। शुरु आत चीन ने की है, खत्म भारत करेगा। यह नया हिंदुस्तान है, 21वीं सदी का नया इंडिया।
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