मुद्दा : बढ़ती गर्मी में घटता जल

Last Updated 09 Apr 2025 11:52:58 AM IST

भारत के सबसे बड़े महानगरों में से एक मुंबई की प्यास बुझाने का दारोमदार जिन सात जलाशयों पर है, उनमें मार्च के चौथे हफ्ते में ही महज 37.67 प्रतिशत पानी बच रह गया। इन जलाशयों में फिलहाल 5 लाख 45 हजार 183 मिलियन लीटर पानी है।


मुद्दा : बढ़ती गर्मी में घटता जल

 दावा है कि यह जल बमुश्किल मई महीने तक चल पाएगा। हर दिन 400 करोड़ लीटर पेयजल की मांग वाले इस महानगर में समय से पहली आई गर्मी ने पानी का गणित बिगाड़ दिया है। गर्मी के कारण जलाशयों में वाष्पीकरण तेज हो गया है। इसलिए जलस्तर तेजी से नीचे जा रहा है। 

देश के दूसरे संरक्षित जलाशयों के हालात भी मुंबई से बेहतर नहीं हैं। केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, देश के अधिकांश बड़े जलाशयों में पानी उनकी कुल क्षमता के मुकाबले 45% तक कम हो गया है। वहीं, मौसम विभाग ने मार्च से मई के बीच भीषण गर्मी की चेतावनी दी है, तीखी गर्मी यानी जमा जल का अधिक वाष्पीकरण। सीडब्ल्यूसी के अनुसार, देश के 155 प्रमुख जलाशयों में फिलहाल 8,070 करोड़ क्यूबिक मीटर (बीसीएम) पानी बचा है, जबकि इनकी कुल क्षमता 18,080 करोड़ क्यूबिक मीटर है। जलाशय आरक्षित जल-कुंड हैं, जो खेती-किसानी की जान होते हैं। अभूत से कल-कारखाने भी इनके पानी पर निर्भर हैं। 

पेयजल तो है ही। यदि इन जलाशयों में पानी पर वाष्पीकरण की चोट गहरी हुई तो जान लें कि रबी और खरीफ के बीच तीसरी फसल लेने वाले खेत खाली ही रहेंगे। यदि जलाशय खाली, नदी  सूखी तो बहुत सी जल विद्युत परियोजनाओं का ठप होना भी तय है। चिलचिलाती गर्मी में बिजली की कमी बड़े स्तर पर हाहाकार का न्योता है। संकट अकेले जलाशयों का नहीं है, नदियां भी समय से पहले सूख रही हैं। नदियों का सूखना अकेले पानी की कमी ही नहीं होता, इससे समूचे पर्यावरणीय तंत्र का नुकसान होता है। जमीन की नमी कम होने से ले कर जल-जंगल के जीव तक इससे प्रभावित होते हैं, और यह समूचा तंत्र जंगलों के नुकसान का कारण बनता है। 

खून से लाल बस्तर की जीवन रेखा कहलाने वाली इंद्रावती नदी फरवरी के अंतिम हफ्ते में ही मैदान बन गई। बालाघाट की बावन थड़ी नदी हो या फिर अम्बिकापुर की बांकी नदी या बदायूं की सोत नदी, हर जगह जलधर की जगह रेत का मैदान है और लगता है कि नदी वास्तव में पानी के लिए नहीं, बल्कि बालू के लिए होती है। यह बात सीडब्ल्यूसी कह रहा है कि देश की 20 नदी घाटियों में से 14 में मौजूदा जल भंडार उनकी क्षमता के मुकाबले आधे से भी कम है। 

इन नदी बेसिनों में से गंगा अपनी सक्रिय क्षमता के मुकाबले मात्र 50 फीसद पर है, जबकि गोदावरी में 48, नर्मदा में 47 और कृष्णा में 34 फीसद पानी ही शेष बचा है। यह परिदृश्य भूजल के लिए सबसे बड़ा खतरा है और हमारे देश की अधिकांश ग्रामीण जल योजनाएं भूजल पर ही निर्भर हैं। बढ़ती गरमी, घटती बरसात और जल संसाधनों की नैसर्गिकता से लगातार छेड़छाड़ का ही परिणाम है कि बिहार की 90 फीसद नदियों में पानी नहीं बचा। कुछ दशक पहले तक राज्य की बड़ी नदियां-कमला, बलान, फल्गू, घाघरा आदि-कई-कई धाराओं में बहती थीं जो आज नदारद हैं। झारखंड की 141 नदियों के गुम हो जाने की बात फाइलों में दर्ज हो चुकी है। राज्य की राजधानी रांची में करमा नदी देखते देखते अतिक्रमण के घेर में मर गई। हरमू और जुमार नदियां नाला बना चुकी हैं। चतरा, देवघर, पाकुड़, पूर्वी सिंहभूम घने जंगल वाले जिले हैं, जहां कुछ ही सालों में सात से 12 नदियों की जल धारा मर गई। 

यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है कि ‘औसत से कम’ पानी बरसा या बरसेगा, अब क्या होगा? देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि करती है। अभी तक तो कम बरसात की आंशका होते ही दाल, सब्जी व अन्य उत्पादों के दाम बाजार में आसमानी हो जाते थे लेकिन अब बाजार पर सबसे अधिक असर गर्मी के आंकड़ों का है। इसके बावजूद बढ़ते तापमान के साथ पानी के इस्तेमाल की हमारी आदतें नहीं सुधर रहीं। असल में हमने पानी को ले कर अपनी आदतें खराब कीं। जब कुएं से रस्सी डाल कर पानी खींचना होता था या चापाकल चला कर पानी भरना होता था तो जितनी जरूरत होती थी, उतना ही जल उलींचा जाता था। घर में टोंटी वाले नल लगने और उसके बाद बिजली या डीजल पंप से चलने वाले ट्यूबवेल लगने के बाद तो एक गिलास पानी के लिए बटन दबाते ही दो बाल्टी पानी बर्बाद करने में भी हमारी आत्मा नहीं कांपती है। 

हमारी परंपरा पानी की हर बूंद को स्थानीय स्तर पर सहेजने, नदियों के प्राकृतिक मार्ग में बांध, रेत निकालने, मलवा डालने, कूड़ा मिलाने जैसी गतिविधियों से बच कर, पारंपरिक जल स्त्रोतों-तालाब, कुओं, बावड़ी आदि के हालात सुधार कर, एक महीने की बारिश के साथ साल भर के पानी की कमी से जूझने की रही है। हम भूल जाते हैं कि प्रकृति पानी हमें एक चक्र के रूप में प्रदान करती है, और इस चक्र को गतिमान बनाए रखना हमारी महती जिम्मेदारी है।

पंकज चतुर्वेदी


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