सुभाष जयंती : सुभाष का राजनीतिक दर्शन और गांधी-नेहरू

Last Updated 23 Jan 2025 11:11:11 AM IST

आज भारत रत्न नेता जी सुभाष चंद्र बोस की 128वीं जयंती है। 23 जनवरी, 1897 को जन्मे सुभाष उड़ीसा से निकल कर उस समय देश भर में छा गए जब आजादी के लिए तीखा संघर्ष चल रहा था और गांधी जी का दिव्य कहे जाने वाला प्रभामंडल देश को रोशनी तो दे रहा था पर आजादी का सपना गांधी जी के ‘अहिंसा दर्शन’ के आधार पर पूरा होता नहीं दिख रहा था।


सुभाष जयंती : सुभाष का राजनीतिक दर्शन और गांधी-नेहरू

आज सुभाष जयंती पर देखना समीचीन होगा कि सुभाष के राजनीतिक दर्शन के मुख्य बिंदु क्या थे। नेता जी का मानना था कि भारतीय स्वतंत्रता अहिंसा के माध्यम से नहीं मिल सकती, बल्कि इसके लिए सशस्त्र संघर्ष और हर प्रकार की शक्तियों का उपयोग आवश्यक है। इसीलिए  भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से अलग होकर उन्होंने आजाद हिन्द फौज खड़ी करके अंग्रेजों के खिलाफ सैन्य संघर्ष का नेतृत्व करना तय किया। नेता जी ने भारतीय समाज को जाति, धर्म और भाषाई भेदभाव से ऊपर उठ कर एकजुट होने का आह्वान किया। उनका मानना था कि भारत की ताकत उसकी विविधता में है, लेकिन राष्ट्रीय एकता सुनिश्चित करना अत्यंत आवश्यक था। उनका मानना था कि देश से आर्थिक-सामाजिक खाई को पाटना जरूरी है।

भले ही थोड़ा अटपटा लगे मगर नेता जी का राजनीतिक दर्शन समाजवादी विचारधारा से प्रभावित था। इसका प्रमाण यह भी है कि उन्होंने कहा था कि औपनिवेशिक सत्ता से मुक्ति पर्याप्त नहीं है, बल्कि समाज में सामाजिक-आर्थिक न्याय भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए। उन्होंने भारतीय समाज में समानता और किसानों तथा श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा की आवश्यकता पर जोर दिया। नेता जी मानते थे कि विशाल ब्रिटिश ताकत के सामने स्वदेशी संसाधनों से सफलता मिलना मुश्किल है। इसके लिए वैश्विक समर्थन जुटाना होगा। इसलिए उन्होंने विदेशी ताकतों से समर्थन प्राप्त करने की कोशिश की और जर्मनी तथा जापान से सहायता प्राप्त करने में सफल भी रहे। उनका विचार था कि भारत को अपनी सांस्कृतिक धरोहर को पहचानते हुए पश्चिमी औपनिवेशिक शक्तियों से लड़ाई लड़नी चाहिए।

नेता जी का राजनीतिक दर्शन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भूमिका निभाने में निर्णायक सिद्ध हुआ। लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चंद्र पाल नेता जी के आदर्श स्वाधीनता नायक थे। वे चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह एवं खुदीराम बोस जैसे युवाओं को उनकी वैचारिक क्रांति के साथ आगे लाकर स्वाधीनता पाने के समर्थक थे। बहुत से लोगों का मानना है कि नेता जी और महात्मा गांधी दो विपरीत ध्रुव थे लेकिन यह सच नहीं है।

कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव, जब गांधी जी उनके खिलाफ सीता रमैया को समर्थन दे रहे थे, में भी सुभाष ने गांधी जी के खिलाफ एक भी शब्द नहीं कहा और गांधी जी का सम्मान करते हुए बाद में स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष के पद से त्यागपत्र देकर फॉर्वड ब्लॉक की स्थापना करके आजादी के लिए एक नया रास्ता तैयार किया। राजनीतिक क्षेत्र में यह अवधारणा भी है कि नेहरू जी एवं नेता जी में राजनीतिक कटुता थी। इसमें कितनी सच्चाई है, इसे भी जानना समीचीन होगा। नेता जी, महात्मा गांधी और नेहरू भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की महत्त्वपूर्ण धारा के हिस्सा थे, भले ही उनके दृष्टिकोण और राजनीतिक दृष्टियां अलग थीं। सच है कि सुभाष और गांधी के बीच संबंध जटिल थे। लेकिन दोनों का एक ही उद्देश्य था भारत की स्वतंत्रता।

नेता जी ने गांधी जी के ‘नम्र’ और ‘अहिंसक’ दृष्टिकोण को चुनौती दी और उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में गांधी जी के नेतृत्व से असहमत होते हुए अलग राह चुनी। नेता जी न केवल आम जनमानस में अपितु कांग्रेस में भी लोकप्रिय थे। इसका पता इससे चलता है कि 1939 में गांधी जी के खुले विरोध के बावजूद सुभाष भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। लेकिन गांधी जी उनकी नीतियों से असहमत थे, इसकारण नेता जी ने कांग्रेस से इस्तीफा दे कर अलग राजनीति शुरू की। इसके बावजूद नेता जी ने हमेशा गांधी जी के प्रति सम्मान प्रकट किया। सुभाष ही थे जिन्होंने गांधी जी को सबसे पहले राष्ट्रपिता कह कर संबोधित किया था।

नेता जी और नेहरू के बीच भी विचारधाराओं को लेकर कुछ मतभेद थे। पहले जब नेता जी कांग्रेस में थे, नेहरू और नेता जी के बीच अच्छे रिश्ते थे। दोनों ने स्वतंत्रता संग्राम में एक-दूसरे का समर्थन किया था और उन्हें समान लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए एकजुट देखा जाता था। हालांकि, नेहरू ने पहले नेता जी को कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद समर्थन दिया था, लेकिन बाद में उनका दृष्टिकोण बदल गया। नेहरू और नेता जी के बीच मुख्य मतभेद समाजवादी और पूंजीवादी नीतियों को लेकर था। नेहरू समाजवादी विचारधारा के समर्थक थे और उन्होंने समाज के लिए एक केंद्रीय योजना की वकालत की जबकि नेता जी ने इसके बजाय अधिक स्वतंत्र और राष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाया, जिसमें सशस्त्र संघर्ष का समर्थन भी शामिल था।

डॉ. घनश्याम बादल


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